संस्कृत सूची|पूजा विधीः|प्रतिष्ठारत्नम्|
ब्राम्हणवरणम्‌

ब्राम्हणवरणम्‌

सर्व पूजा कशा कराव्यात यासंबंधी माहिती आणि तंत्र.


यजमान एवं यजमान पत्नी आसन से उठकर, अर्घ्यपात्र एवं पाद्यपात्र लेकर ऋषितुल्य विप्रवर्ग का सन्मान एवं स्वागत करते है, पादप्रक्षालन एवं अर्घ्य देते हैं, यही प्रक्रिया मधुपर्क में भी है । लेकिन एक परंपरा ऐसी स्थिर हो गयी कि यजमान पत्नी के हाथ में पुण्याहवाचन कलश देकर भी इदं पाद्यं बोलते समय बुद्धि कंपित नहीं हुई । अंधपरंपरान्याय से इस का अनुसरण हो रहा है । स्मरण रहे कि वरुणदेवता की  जिस में प्रतिष्ठा हुई है वैसे कलश को अज्ञानत: प्रयोग में लानेवाले को धृतव्रत वरुण क्षमा नहीं भी करता होगा । अस्तु, पत्नी को पादप्रक्षालन निमित जल पात्र दें ।
ब्राम्हणप्रार्थना के कुछ श्लोक अविचारित रमणीय है, अत: परिवर्तन अपेक्षित है - यथा - अक्रोधना० - परनिन्दका: । के स्थान पर क्रामक्रोधादिरहित:, योगमार्गानुग: क्षमी । लघ्वाशी ब्रम्हाचारी चे देवताध्यानतत्पर: । परिवारयुत: सम्यक्‌ वित्तशाठयविवर्जित: । प्रसन्नमनसा यागं भवदाज्ञानुसात: । (संपादये) मदर्धे नियमा हयेते भवद्भि: आत्मसात्‌ कृता: ॥ आनेकबार प्रश्न उठता है कि पुण्याहवाचन में ब्राम्हाणों के लिए व्रतजप: पदपंक्ति प्रयोग पश्चात्‌ ऐसे विधान गरिमा को बढाते हैं कि वास्तविकता दर्शक हैं ।
प्रवचन कुशल आचार्य जब इन पर भाष्य करते हैं तब भूल गये कि आपने अभी तो जंगमं तीर्थं अपने को बताकर इन नियमों में कैसे आगये
न समझते विरोधपूर्ण विधानों का प्रयोग अज्ञानता प्रदर्शन है । जिस समय इन श्लोकों का निर्माण हुआ उसी दिन ब्राम्हाणों के पतन का निर्देश भी हो गया था । यथोक्त नियमै: युक्ता - विधान सब कुछ कह देता है फिर निन्दात्मक विधान कैसे आये । उपदेश उसी के लिए होता है जिसे कर्तव्यबुद्धि न हो । सांगोपांगता कुशकंडिका का क्रिया प्रारंभिक कर्म कर लेते हैं जो भूसंस्कार हैं, पश्चात्‌ कुण्डपूजन भी, लेकिन अनंतर सब बराबर है ऐसा मानकर तिष्ठन्‌ समिधो - के पास आ जाते हैं । देवताभिध्यानम्‌ की क्रिया तो प्राय: लोप ही हो चुकी है । कारण स्पष्ट है । आचार्य आहुति निर्धारण प्राय: नहीं करते और यावत्‌ तैलं तावत्‌  आख्यानम्‌जैसी स्थिति देखी जाती है । उस में  भी स्वमति मंत्र, आहुति एवं संख्या हविद्रव्य को देखर न्यूधाधिक करते रहते हैं, । तत्त्वत: यह दोष ही है । अत: होम के प्रारंभ में देवताभिध्यानम्‌ निमित्त कर्म अनुसार आहुति संख्या एवं विप्रसंख्या कौ निर्धारण हो । भावनावशात्‌ कितने भी लोग कुछ भी आहुति देते रहे यह भावनावाद को शास्त्राज्ञा से दोष होता है, अत: सर्वप्रायश्चित्त आहुति का संकल्प पढने पर स्पष्टता होगी । प्रोक्षणी पात्र की जानकारी, त्याग, घृत, हर्द्रद्रव्य आदि की शुद्धता का आग्रह कुशांडी के अवलोकन से ज्ञात होगा । अपद्रव्य निरसनम्‌ बोल ने के पक्षात आज्ञा पक्षात्‌ घृत में  कुछा भी गिरे इस की चिन्ता नहीं होती । हुतद्रव्य का बहिपतन, अन्यत्र पतन दारिद्य को निमंत्रण है । अथच आघार एवं आज्यभाग की आहुति भी नियमानुसार हो । कुंड प्रमाण की आकृति में यह स्पष्ट दिखाया गया है ।

N/A

References : N/A
Last Updated : May 24, 2018

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP