हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|पुस्तक|विनय पत्रिका|
विनयावली १८८

विनय पत्रिका - विनयावली १८८

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी मेरी ,

कहौं , बलि , बेदकी न , लोक कहा कहैगो ?

प्रभुको उदास - भाउ , जनको पाप - प्रभाउ ,

दुहूँ भाँति दीनबन्धु ! दीन दुख दहैगो ॥१॥

मैं तो दियो छाती पबि , लयो कलिकाल दबि ,

साँसति सहत , परबस को न सहैगो ?

बाँकी बिरुदावली बनैगी पाले ही कृपालु !

अंत मेरो हाल हेरि यौं न मन रहैगो ॥२॥

करमी - धरमी , साधु - सेवक , बिरत - रत ,

आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो ?

तेरे मुँह फेरे मोसे कायर - कपूत - कूर ,

लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो ? ॥३॥

काल पाय फिरत दसा दयालु ! सबहीकी ,

तोहि बिनु मोहि कबहूँ न कोऊ चहैगो ।

बचन - करम - हिये कहौं राम ! सौंह किये ,

तुलसी पै नाथके निबाहेई निबहैगो ॥४॥

भावार्थः - यदि आपकी सुधारी हुई मेरी बात मेरे बिगाड़नेसे बिगड़ जायगी तो , मैं तुम्हारी बलैया लेता हूँ , फिर वेदकी तो जाने दीजिये , संसार क्या कहेगा ? ( वेदमें कुछ भी लिखा हो , संसार तो यही कहेगा कि तुलसी ही ईश्वर है , क्योंकि उसने रामजीकी बनायी बातको बिगाड़ दिया । ) प्रभुकी उदासीनता और मुझ दासके पापोंका प्रभाव , यदि ये दोनों मिल गये तो हे दीनबन्धो ! यह दीन दुःखके मारे जल मरेगा । ( मैं तो महापापी हूँ ही पर आप भी उदासीन हो जायँगे मेरी बड़ी ही बुरी गति होगी ) ॥१॥

मैंने तो अपनी छातीपर वज्र रख लिया है ( दुःख सहनेके लिये तैयार हूँ , परन्तु पाप नहीं छोड़ता ) क्योंकि कलियुगने मुझे दबा रखा है । इसीसे कष्ट सह रहा हूँ । ( मैं ही क्यों ) जो भी परतन्त्र होगा , उसे कष्ट सहने ही पड़ेंगे । किन्तु हे कृपालु ! आपको तो अपनी बाँकी विरदावलीके वश होकर मेरी रक्षा करनी ही पड़ेगी । ( अभी न सही , ) अन्त समय तो मेरा ( बुरा ) हाल देखकर आपका यह उदासीन भाव रह नहीं सकता ( दयालु स्वभावसे मेरा दुःख देखा ही नहीं जायगा , तब दौड़कर बचाना होगा ) ॥२॥

कर्मकाण्डी , धर्मात्मा , साधु , सेवक , विरक्त और विषयी जीव ये सब तो अपने - अपने भले कर्मोंके अनुसार कहीं कोई - सा स्थान पा ही जायँगे , परन्तु आपके मुँह फेर लेनेसे ( उदासीन हो जानेसे ) मुझ - सरीखे कायर , कुपूत , क्रूर , साधनहीन और पतित जीवोंको कौन आश्रय देगा ( कोई भी नहीं ) ॥३॥

हे दयालो ! काल पाकर सभीकी दशा पलटती है , सभीके दिन फिरते हैं , परन्तु आपको छोड़कर मुझे तो कभी कोई नहीं चाहेगा ( आपके आश्रयको छोड़कर मुझे कहीं कोई स्थान नहीं मिलनेका ) । हे श्रीरामजी ! आपकी शपथ खाकर वचन , कर्म और मनसे कहता हूँ कि यह तुलसी तो नाथके ही निबाहे निभेगा ॥४॥

N/A

References : N/A
Last Updated : November 13, 2010

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP