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श्रीराम स्तुति ८

विनय पत्रिका - श्रीराम स्तुति ८

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


देव

विश्व - विख्यात, विश्वेश, विश्वायतन, विश्वमरजाद, व्यालारिगामी ।

ब्रह्म, वरदेश, वागीश, व्यापक, विमल, विपुल, बलवान, निर्वानस्वामी ॥१॥

प्रकृति, महतत्व, शब्दादि गुण, देवता व्योम, मरुदग्नि, अमलांबु, उर्वी ।

बुद्धि, मन, इंद्रिय, प्राण, चित्तातमा, काल, परमाणु, चिच्छक्ति गुर्वी ॥२॥

सर्वमेवात्र त्वद्रूप भूपालमणि ! व्यक्तमव्यक्त, गतभेद, विष्णो ।

भुवन भवदंग, कामारि - वंदित, पदद्वंद्वमंदाकिनी - जनक, जिष्णो ॥३॥

आदिमध्यांत, भगवंत ! त्वं सर्वगतमीश, पश्यन्ति ये ब्रह्मवादी ।

यथा पट - तंतु, घट - मृत्तिका, सर्प - स्रग, दारु करि, कनक - कटकांगदादी ॥४॥

गूढ़, गंभीर, गर्वघ्न, गूढार्थवित, गुप्त, गोतीत, गुरु, ग्यान - ग्याता ।

ग्येय, ग्यानप्रिय, प्रचुर गरिमागार, घोर - संसार - पर, पार दाता ॥५॥

सत्यसंकल्प, अतिकल्प, कल्पांतकृत, कल्पनातीत, अहि - तल्पवासी ।

वनज - लोचन, वनज - नाभ, वनदाभ - वपु, वनचरध्वज - कोटि - लावण्यरासी ॥६॥

सुकर, दुःकर, दुराराध्य, दुर्व्यसनहर, दुर्ग, दुर्द्धर्ष, दुर्गार्त्तिहर्त्ता ।

वेदगर्भार्भकादर्भ - गुनगर्व, अर्वागपर - गर्व - निर्वाप - कर्त्ता ॥७॥

भक्त - अनुकूल, भवशूल - निर्मूलकर, तूल - अघ - नाम पावक - समानं ।

तरलतृष्णा - तमी - तरणि, धरणीधरण, शरण - भयहरण, करुणानिधानं ॥८॥

बहुल वृंदारकावृंद - वंदारु - पद - द्वंद्व मंदार - मालोर - धारी ।

पाहि मामीश संताप - संकुल सदा दास तुलसी प्रणत रावणारी ॥९॥

भावार्थः-- हे श्रीरामजी ! आप विश्वमें प्रसिद्ध, अखिल ब्रह्माण्डके स्वामी, विश्वरुप, विश्वकी मर्यादा और गरुड़पर जानेवाले हैं । आप ब्रह्म हैं । वर देनेवाले ब्रह्मादि देवताओंके और वाणीके स्वामी हैं । आप सर्वव्यापक, निर्मल, बड़े बलवान् और मोक्ष - पदके अधीश्वर हैं ॥१॥

मूल प्रकृति, महत्तत्व, शब्द, स्पर्श, रुप, रस, गन्ध, सत्त्व, रज, तमोगुण; समस्त देवता; आकाश, वायु, अग्नि, निर्मल जल, पृथ्वी, बुद्धि, मन, दसों इन्द्रियाँ; प्राण, अपान, समान, व्यान, उदाननामक पंच प्राण; चित्त, आत्मा, काल, परमाणु और महान् चैतन्यशक्ति आदि सभी कुछ आप ही हैं; आप अभेदरुपसे अखिल विश्वमें रम रहे हैं । यह समस्त जगत आपके अंशमें स्थित हैं । शिवजी आपके दोनों चरणकमलोंकी वन्दना करते हैं, श्रीगंगाजी इन्हीं चरणोंसे निकली हैं । आप सर्वविजयी ऐं ॥२ - ३॥

हे भगवन् ! आप ही आदि, मध्य और अन्त हैं । आप सबमें व्याप्त हैं । हे ईश ! ब्रह्मवादी ज्ञानीजन आपको सबमें ऐसे ओत - प्रोत देखते हैं, जैसे वस्त्रमें सूत, घड़ेमें मिट्टी, सर्पमें माला, लकड़ीके बने हुए हाथीमें लकड़ी और कड़े, बाजू आदि गहनोंमें सोना ओत - प्रोत हैं ॥४॥

इस प्रकार आप अत्यन्त गूढ़, गम्भीर, दर्पहारी, गुप्त रहस्यके ज्ञाता, गुप्त, मन - इन्द्रियोंसे अतीत, सबके गुरु, ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेयस्वरुप, ज्ञानप्रिय, महान् गौरवके भण्डार और इस घोर भवसागरसे पार उतार देनेवाले हैं ॥५॥

आपका संकल्प सत्य है, आप प्रलय और महाप्रलय करनेवाले हैं । मन - बुद्धिसे आपकी कोई कल्पना नहीं कर सकता । आप शेषनागकी शय्यापर निवास करनेवाले हैं । आपके कमलके समान नेत्र हैं, आपकी नाभिसे कमल उत्पन्न हुआ है, आपके शरीरकी कान्ति मेघके समान श्याम है और करोड़ों कामदेवोंके समान आप सुन्दरताकी राशि हैं ॥६॥

आप भक्तोंके लिये सुलभ, दुष्टोंके लिये दुर्लभ हैं, आपकी आराधनामें ( परीक्षाके लिये ) बड़े - बड़े कष्ट आते हैं, आप भक्तोंके सारे दुर्गुणोंका नाश कर देते हैं, बड़े दुर्गम ( बड़ी कठिनाईसे मिलते हैं ) दुर्द्धर्ष हैं और कठिन दुःखोंके हरनेवाले हैं । आप ब्रह्माजीके पुत्र सनकादिको अपनी परा - अपरा विद्याका जो गर्व था, उसे हरण करनेवाले हैं ॥७॥

आप भक्तोंपर प्रसन्न रहनेवाले, जन्म - मरणरुप संसारके क्लेशको जड़से उखाड़नेवाले हैं । आपका रामनाम पापरुपी रुईको जलानेके लिये अग्निरुप है । चंचल तृष्णारुपी रात्रिका नाश करनेके लिये आप सूर्य हैं , पृथ्वीको धारण करनेवाले, शरणागतका भय हरनेवाले और करुणाके स्थान हैं ॥८॥

आपके चरणयुगलोंली बहुत - से देवताओंके समूह वन्दना करते हैं । आप मन्दारकी माला हदयपर धारण किये रहते हैं । हे रावणके शत्रु श्रीरामजी ! सदा सन्तापसे व्याकुल मैं तुलसीदास आपकी शरण हूँ । हे नाथ ! मेरी रक्षा किजीये ॥९॥

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Last Updated : August 25, 2009

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