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विनयावली ४२

विनय पत्रिका - विनयावली ४२

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


केसव ! कारन कौन गुसाईं ।

जेहि अपराध असाध जानि मोहिं तजेउ अग्यकी नाईं ॥१॥

परम पुनीत संत कोमल - चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई ।

तौ कत बिप्र, ब्याध, गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥२॥

काल, करम, गति अगति जीवकी, सब हरि ! हाथ तुम्हारे ।

सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु ! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥३॥

जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे ।

मन - बच - करम नरक - सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे ॥४॥

जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सों करौं ढिठाई ।

तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारी निठुराई ॥५॥

भावार्थः- हे केशव ! हे स्वामी ! ऐसा क्या कारण ( अपराध ) है जिस अपराधसे आपने मुझे दुष्ट समझकर एक अनजानकी तरह छोड़ दिया ? ॥१॥

( यदि आप मुझे तो दुष्ट समझते हैं, और ) जिनके आचरण बड़े ही पवित्र हैं, जो कोमलहदय संत हैं, उन्हींको अपनाते हैं, तो फिर अजामिल, वाल्मीकि और गणिकाका उद्धार क्यों किया था ? क्या उनसे आपकी कोई खास रिश्तेदारी थी ? ॥२॥

हे हरे ! इस जीवका काल, कर्म, सुगति, दुर्गति सब कुछ आपहीके हाथ है; अत: हे प्रभो ! मेरी ममताका नाश कर कुछ ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं आपको भूलकर इधर - उधर भटकता न फिरुँ ॥३॥

यदि आप मुझे छोड़ भी देंगे, तो भी मैं तो आपहीको भजूँगा, दूसरे किसीको अपना प्रभू कभी नहीं मानूँगा, यह मेरा अटल प्रण हैं; आप नरक या स्वर्गमें जहाँ कहीं भी भेजेंगे, वहीं हे रघुनाथजी ! मन, वचन और कर्मसे मैं आपहीकी विनय करता रहूँगा ॥४॥

हे नाथ ! यद्यपि यह उचित नहीं है कि मैं प्रभुके साथ ऐसी ढिठाई करुँ, परन्तु रात - दिन आपकी निष्ठुरता देखकर यह तुलसीदास बड़ा दुःखी हो रहा है, ( इसीसे बाध्य होकर ) ऐसा कहना पड़ा ॥५॥

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Last Updated : March 22, 2010

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