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विनयावली ७२

विनय पत्रिका - विनयावली ७२

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


सकुचत हौं अति राम कृपानिधि ! क्यों करि बिनय सुनावौं ।

सकल धरम बिपरीत करत, केहि भाँति नाथ ! मन भावौं ॥१॥

जानत हौं हरि रुप चराचर, मैं हठि नयन न लावौं ।

अंजन - केस - सिखा जुवती, तहँ लोचन - सलभ पठावौं ॥२॥

स्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौं, समुझावौं ।

तिन्ह स्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावों ॥३॥

जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौं ।

तेहि मुख पर - अपवाद भेक ज्यों रटि - रटि जनम नसावौं ॥४॥

' करहू हदय अति बिमल बसहिं हरि, ' कहि कहि सबहिं सिखावौं ।

हौं निज उर अभिमान - मोह - मद खल - मंडली बसावौं ॥५॥

जो तनु धरि हरिपद साधहिं जन, सो बिनु काज गँगावौं ।

हाटक - घट भरि धर्यो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं ॥६॥

मन - क्रम - बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौं ।

पर - प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ, सो जनावौं ॥७॥

बिप्र - द्रोह जनु बाँट पर्यो, हठि सबसों बैर बढ़ावौं ।

ताहूपर निज मति - बिलास सब संतन माँझ गनावौं ॥८॥

निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौं ।

तौ न सिराहिं कलप सत लगि प्रभु, कहा एक मुख गावौं ॥९॥

जो करनी आपनी बिचारौं, तौ कि सरन हौं आवौं ।

मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिं दिखावौं ॥१०॥

तुलसिदास प्रभु सो गुन नहिं, जेहि सपनेहुँ तुमहिं रिझावौं ।

नाथ - कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं ॥११॥

भावार्थः- हे कृपानिधि रामजी ! मुझे बड़ा संकोच हो रहा है, मैं किस प्रकार आपको अपनी विनती सुनाऊँ ? जो कुछ भी मैं करता हूँ, सो सभी धर्मके विरुद्ध होता है । फिर नाथ ! आपको मैं क्यों अच्छा लगने लगा ? ॥१॥

यद्यपि मैं यह जानता हूँ कि सम्पूर्ण जड़ - चेतन भगवान् श्रीहरिका ही रुप हैं, पर मैं उस हरिस्वरुपको भूलकर भी नहीं देखता । मैं तो अपने नेत्ररुपी पतंगोंको कामिनीरुपी अग्निकी शिखामें ( जलनेके लिये ) भेजता हूँ ॥२॥

मैं यह समझता हूँ और दूसरोंको भी समझाता हूँ कि कानोंकी सार्थकता तो आपकी कथा सुननेमें ही है; परन्तु मैं तो उन कानोंसे सदा दूसरोंके दोष सुनसुनकर उन्हें हदयमें भरता और सन्तप्त होता हूँ ॥३॥

जिस जीभसे आपके गुणानुवाद गाकर बिना ही परिश्रमके परमसुख प्राप्त कर सकता हूँ, उस मुखसे ( जीभसे ) मेढककी नाईं दूसरोंकी निन्दाएँ रट - रटकर अपना जन्म खो रहा हूँ ॥४॥

मैं यह बात सबको सिखाता फिरता हूँ, कि ' हदयको अत्यन्त शुद्ध कर लो, तभी उसमें भगवान् श्रीहरि विराजेंगे ' किन्तु मैं स्वयं अपने हदयमें अभिमान, मोह और मद आदि दुष्टोंकी मण्डलीको बसाता हूँ ॥५॥

जिस दुर्लभ मनुष्य - शरीरको धारण कर भक्तजन भगवानके परमपदको प्राप्त करनेकी साधना करते हैं, मैं उसे व्यर्थ ही खो रहा हूँ । घरमें सोनेके घड़ोंमें अमृत भरा रखा है, पर उसे छोड़कर आकाशमें कुआँ खुदवाता हूँ ॥६॥

मनसे, कर्मसे और वचनसे मैंने जो पाप किये हैं, उन्हें तो मैं यत्न कर - कर बड़े जतनसे छिपाता हूँ । और यदि दूसरोंकी प्रेरणासे अथवा ईर्ष्यावश कहीं कोई शुभ कर्म बन गया है, तो उसे जनाता फिरता हूँ ॥७॥

ब्राह्मणोंके साथ द्रोह करना तो मानो मेरे हिस्सेमें ही आ गया है । जबरदस्ती ही सबसे वैर बढ़ाता हूँ । इतना ( बुद्धिभ्रष्ट ) होनेपर भी, मैं सब संतोके बीच बैठकर अपनी बुद्धिके विलासको गिनाता हूँ ( उनमें उत्तम ज्ञानी संत बनता हूँ ) ॥८॥

चारों वेद, शेषनाग और शारदा आदिका निहोरा करके उनसे यदि मैं अपने दोषोंका बखान कराऊँ, तब भी, हे प्रभो ! मेरे वे दोष सौ कल्पतरु समाप्त न होंगे ! फिर, भला मैं एक मुखसे उनक कहाँतक वर्णन करुँ ? ॥९॥

यदि मैं अपनी करनीपर विचार करुँ, तो क्या मैं आपकी शरणमें आनेका साहस भी कर सकूँ ? परन्तु श्रीरामजीका बड़ा ही कोमल स्वभाव और असीम शील है, इसी बातका बल मनको दिखता रहता हूँ ॥१०॥

हे प्रभो ! इस तुलसीदासके पास ऐसा एक भी गुण नहीं है, जिससे स्वप्नमें भी आपको रिझा सके । किन्तु हे नाथ ! आपकी कृपाके आगे यह संसार - सागर गायके खुरके समान है । यह जानकर जीमें सन्तोष कर लेता हूँ ( कि आपकी कृपासे मैं विपरीत आचरणवाला होनेपर भी संसार - समुद्रसे सहज ही तर जाऊँगा ) ॥११॥

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Last Updated : March 24, 2010

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