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विनयावली १५३

विनय पत्रिका - विनयावली १५३

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


आपनो कबहुँ करि जानिहौ ।

राम गरीबनिवाज राजमनि , बिरद - लाज उर आनिहौ ॥१॥

सील - सिंधु , सुंदर , सब लायक , समरथ , सदगुन - खानि हौ ।

पाल्यो है , पालत , पालहुगे प्रभु , प्रनत - प्रेम पहिचानिहौ ॥२॥

बेद - पुरान कहत , जग जानत , दीनदयालु दिन - दानि हौ ।

कहि आवत , बलि जाऊँ , मनहुँ मेरी बार बिसारे बानि हौ ॥३॥

आरत - दीन - अनाथनिके हित मानत लौकिक कानि हौ ।

है परिनाम भलो तुलसीको सरनागत - भय - भानि हौ ॥४॥

भावार्थः - हे नाथ ! क्या कभी आप मुझे अपना समझेंगे ? हे राम ! आप गरीबनिवाज और राजाधिराज हैं । क्या आप कभी अपने विरदकी लाजका मनमें विचार करेंगे ? ॥१॥

आप शीलके समुद्र हैं , सुन्दर हैं , सब कुछ करनेयोग्य हैं , समर्थ हैं और सभी सदगुणोंकी खानि हैं । हे प्रभो ! आपने शरणागतका प्रेम भी पहिचानेंगे ? ॥२॥

वेद और पुराण कह रहे हैं , तथा संसार भी जानता है कि आप दीनोंपर दया करनेवाले और प्रतिदिन उन्हें कल्याण - दान देनेवाले हैं । बाध्य होकर कहना ही पड़ता हैं , मैं आपकी बलैया लेता हूँ , आपने मानो मेरी बार अपनी आदतको ही भुला दिया है ॥३॥

आप दीन , दुःखियों और अनाथोंके हितू होनेपर भी क्या संसारका ( यह ) भय मान रहे हैं ? ( कि ऐसे पापीको अपनानेसे कल्याण ही होगा , क्योंकि आप शरणागतके भयको भंजन करनेवाले हैं ॥४॥

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Last Updated : November 13, 2010

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