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विनयावली १६१

विनय पत्रिका - विनयावली १६१

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


दीनबन्धु दूसरो कहँ पावों ?

को तुम बिनु पर - पीर पाइ है ? केहि दीनता सुनावों ॥१॥

प्रभु अकृपालु , कृपालु अलायक , जहँ - जहँ चितहिं डोलावों ।

इहै समुझि सुनि रहौं मौन ही , कहि भ्रम कहा गवावों ॥२॥

गोपद बुड़िबे जोग करक करौं , बातनि जलधि थहावों ।

अति लालची , काम - किंकर मन , मुख रावरो कहावों ॥३॥

तुलसी प्रभु जियकी जानत सब , अपनो कछुक जनावों ।

सो कीजै , जेहि भाँति छाँड़ि छल द्वार परो गुन गावों ॥४॥

भावार्थः - ( तुम - सा ) दीनबन्धु दूसरा कहाँ पाऊँगा ? हे नाथ ! तुमको छोड़कर पराये ( भक्तके ) दुःखसे दुःखी होनेवाला दूसरा कौन है ? फिर अपनी दीनताका दुखड़ा किसके आगे रोता फिरुँ ? ॥१॥

जहाँ - जहाँ मैं अपने मनको डुलाता हूँ , वहाँ - वहाँ कहीं तो ऐसे स्वामी मिलते हैं जिनके दया नहीं है , और कहीं ऐसे मिलते हैं जो दयालु तो हैं , पर अयोग्य ( असमर्थ ) हैं । यह सुन - समझकर चुप ही रह जाता हूँ , क्योंकि ऐसोंके सामने कुछ कहकर अपना भरम ही क्यों खोऊँ ? ( भेद भी खुल जायगा और कुछ होगा भी नहीं ) ॥२॥

कर्म तो ऐसे नीच किया करता हूँ कि गायके खुरमें डूब जाऊँ ( चुल्लूभर पानीमें डूब मरुँ ), पर बातें बनाकर समुद्रकी थाह ले रहा हूँ । ( कोरी कथनी - ही - कथनी है , करनी रत्तीभर भी नहीं है ) । मेरा मन बड़ा ही लालची है और कामका गुलाम है , परन्तु मुखसे तुम्हारा दास बनता फिरता हूँ ॥३॥

हे प्रभु ! आप तुलसीके मनकी तो सभी ( बुरी भली ) बातें जानतें हैं , तो भी मैं अपनी कुछ बातें बतलाना चाहत हूँ । अब तो - कुछ ऐसा उपाय किजीये जिससे कपट छोड़कर ( शुद्ध हदयसे ) आपके द्वारपर पड़ा - पड़ा केवल आपके गुण ही गाया करुँ ॥४॥

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Last Updated : November 13, 2010

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