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विनयावली १९२

विनय पत्रिका - विनयावली १९२

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन - जीयकी ।

रावरो भरोसो नाह कै सु - प्रेम - नेम लियो

रुचिर रहनि रुचि मति गति तीयकी ॥१॥

कुकृत - सुकृत बस सब ही सों संग पर्यो ,

परखी पराई गति , आपने हूँ कीयकी ।

मेरे भलेको गोसाईं ! पोचको , न सोच - संक

हौंहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय - पीयकी ॥२॥

ग्यानहू - गिराके स्वामी , बाहर - अंतरजामी ,

यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी ?

तुलसी तिहारो , तुमहीं पै तुलसीके हित ,

राखि कहौं हौं तो जो पै ह्वहौं माखी घीयकी ॥३॥

भावार्थः - हे नाथ ! इस अपने दासके मनकी बात आप ठीक - ठीक समझ लीजिये । मेरी बुद्धिरुपी सुन्दर ( पतिव्रता ) स्त्रीने आपके भरोसेको अपना स्वामी मानकर उसीके साथ विशुद्ध प्रेम करनेका नियम लिया है और सुन्दर आचरणोंमें उसकी रुचि है ॥१॥

पाप और पुण्यके वश होनेके कारण मुझे सभीके साथ रहना पड़ा , इसमें मैं अपनी और परायी दोनोंहीकी चालोंको परख चुका हूँ । हे नाथ ! मुझे अपनी भलाई या बुराईकी न तो कोई चिन्ता है , न डर हैं । ( आपके शरण होनेपर भी यदि भले - बुरेकी चिन्ता लगी रही या भय बना रहा तो वह शरणागति ही कैसी ? स्वामीके शरण होते ही मैं निश्चिन्त और निर्भय हो गया हूँ । ) यह मैं श्रीसीतानाथजीकी शपथ खाकर सच - सच कह रहा हूँ ॥२॥

( बनावटी बात कहूँगा तो वह चलेगी ही नहीं , क्योंकि ) आप ज्ञान और वाणीके स्वामी हैं । बाहर और भीतर दोनोंकी बात जाननेवाले हैं । आपके सामने मुँहकी और हदयकी बात कैसे छिप सकती है ? तुलसी आपका है और आप तुलसीका हित करनेवाले हैं । इसमें मैं यदि ( कुछ भी कपट ) रखकर कहता होऊँ तो मैं घीकी मक्खी हो जाऊँ । भाव , जैसे मक्खी घीमें गिरकर तुरंत मर जाती है , उसी प्रकार मेरा भी सर्वनाश हो जाय ॥३॥

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Last Updated : November 13, 2010

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