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विनयावली १५६

विनय पत्रिका - विनयावली १५६

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


भरोसो जाहि दूसरो सो करो ।

मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो ॥१॥

करम उपासन , ग्यान , बेदमत , सो सब भाँति खरो ।

मोहि तो ' सावनके अंधहि ' ज्यों सूझत रंग हरो ॥२॥

चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो ।

सो हौं सुमिरत नाम - सुधारस पेखत परुसि धरो ॥३॥

स्वारथ औ परमारथ हू को नहि कुंजरो - नरो ।

सुनियत सेतु पयोधि पषाननि करि कपि कटक - तरो ॥४॥

प्रीति - प्रतीति जहाँ जाकी , तहँ ताको काज सरो ।

मेरे तो माय - बाप दोउ आखर , हौं सिसु - अरनि अरो ॥५॥

संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो ।

अपनो भलो राम - नामहि ते तुलसिहि समुझि परो ॥६॥

भावार्थः - जिसे दूसरेका भरोसा हो , सो करे । मेरे लिये तो इस कलियुगमें एक राम - नाम ही कल्पवृक्ष है , जिसमें कल्याणरुपी फल फला है । भाव यह कि राम - नामसे ही मुझे तो यह भगवतप्रेम प्राप्त हुआ है ॥१॥

यद्यपि कर्म , उपासना और ज्ञान - ये वैदिक सिद्धान्त सभी सब प्रकारसे सच्चे हैं , किन्तु मुझे तो , सावनके अन्धेकी भाँति , जहाँ देखता हूँ वहाँ हरा - ही - हरा रंग दीखता है । ( एक राम - नाम ही सूझ रहा है ) ॥२॥

मैं कुत्तेकी नाईं ( अनेक जूँठी ) पत्तलोंको चाटता फिरा , पर कभी मेरा पेट नहीं भरा । आज मैं नाम - स्मरण करनेसे अमृतरस परोसा हुआ देखता हूँ । ( मैंने अनेक देवभोग्य भोग भोगे , परन्तु कहीं तृप्ति नहीं हुई । पूर्ण , नित्य परमानन्द कहीं नहीं मिला । अब श्रीराम नामका स्मरण करते ही मैं देख रहा हूँ , कि मुक्तिका थाल मेरे सामने परोसा रखा है अर्थात् ब्रह्मानन्दरुप मोक्षपर तो मेरा अधिकार ही हो गया । परोसी थालीके पदार्थको जब चाहुँ तब खा लूँ , इसी प्रकार मोक्ष तो जब चाहूँ तभी मिल जाय । परन्तु मैं तो मुक्त पुरुषोंकी कामनाकी वस्तु श्रीराम - प्रेम - रसका पान कर रहा हूँ । ) ॥३॥

मेरे लिये राम - नाम स्वार्थ और परमार्थ दोनोंका ही साधक है , ( मुक्तिरुपी स्वार्थ और भगवत्प्रेमरुपी परम अर्थ दोनों ही मुझे श्रीराम - नामसे मिल गये ) । यह बात ' हाथी है या मनुष्य ' की - सी दुविधा भरी नहीं है , ( क्योंकि मुझे तो प्राप्त है ) । मैंने सुना है कि इसी नामके प्रभावसे बंदरोंकी सेना पत्थरोंका पुल बनाकर समुद्रको पार कर गयी थी ॥४॥

जहाँ जिसका प्रेम और विश्वास है , वहीं उसका काम पूरा हुआ है ( इसी सिद्धान्तके अनुसार ) मेरे तो माँ - बाप ये दोनों अक्षर - ' र ' और ' म ' - हैं । मैं तो इन्हींके आगे बालहठसे अड़ रहा हूँ , मचल रहा हूँ ॥५॥

यदि मैं कुछ भी छिपाकर कहता होऊँ तो भगवान् शिवजी साक्षी हैं , मेरी जीभ जलकर या गलकर गिर जाय । ( यह ' कवि - कल्पना ' या अत्युक्ति नहीं हैं , सच्ची स्थितिका वर्णन है ) यही समझमें आया कि अपना कल्याण एक राम - नामसे ही हो सकता है ॥६॥

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Last Updated : November 13, 2010

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