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विनयावली ७९

विनय पत्रिका - विनयावली ७९

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


कहाँ जाउँ, कासों कहौं, और ठौर न मेरे ।

जनम गँवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे ॥१॥

मैं तो बिगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें ।

तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी - सी कीन्हें ॥२॥

दिन - दुरदिन दिन - दुरदसा, दिन - दुख दिन - दूषन ।

जब लौं तू न बिलोकिहै रघुबंस - बिभूषन ॥३॥

दई पीठ बिनु डीठ मैं तुम बिस्व - बिलोचन ।

तो सों तुही न दूसरो नत - सोच - बिमोचन ।

पराधीन देव दीन हौं, स्वाधीन गुसाईं ।

बोलनिहारे सों करै बलि बिनयकी झाईं ॥५॥

आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो ।

बड़ी ओट रामनामकी जेहि लई सो बाँचो ॥६॥

रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है ।

ज्यों भावै त्यों करु कृपा तेरो तुलसी है ॥७॥

भावार्थः- कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ? मुझे कोई और ठौर ही नहीं । इस तेरे गुलामने तो तेरे ही दरवाजेपर ( पड़े - पड़े ) जिन्दगी काटी है ॥१॥

मैंने तो जो अपनी करनी बिगाड़ी सो हे नाथ ! दुःखोंसे घबराया हुआ होनेके कारण बिगाड़ी । परन्तु हे कृपानिधे ! यदि तू भी मेरी करनीकी ओर देखकर फल देगा तो कैसे काम चलेगा ? ॥२॥

हे रघुकुलमें श्रेष्ठ ! जबतक तू ( इस जीवकी ओर कृपादृष्टिसे ) नहीं देखेगा, तबतक नित्य ही खोटे दिन, नित्य ही बुरी दशा, नित्य ही दुःख और नित्य ही दोष लगे रहेंगे ॥३॥

मैं जो तुझे पीठ दिये फीरता हूँ, तुझसे विमुख हो रहा हूँ, सो मैं तो दृष्टिहीन हूँ, अन्धा हूँ ( अज्ञानी हूँ ) पर तू तो सारे विश्वका द्रष्टा है ! ( तू मुझसे विमुख कैसे होगा ? ) तुझसा तो तू ही है, तेरे सिवा दीन - दुःखीयोंके शोक हरनेवाला दूसरा कोई नहीं है ॥४॥

हे देव ! मैं परतन्त्र हूँ, दीन हूँ, पर तू तो स्वतन्त्र है, स्वामी है । तेरी बलिहारी ! ( चैतन्यरुप ) बोलनेवालेसे उसकी परछाई क्या विनय कर सकती है ? ॥५॥

अतएव तू पहले अपनी ओर देख, फिर मेरी ओर देख, तभी इस दासको सच्चा मानना । राम - नामकी ओट बड़ी भारी है । जिस किसीने भी राम - नामकी ओट ले ली वह ( जन्म - मरणके चक्रसे ) बच गया ॥६॥

हे राम ! तेरी रहन - सहन सदा मेरे हदयमें हुलस रही हैं, तेरे शील - स्वभाव विचारकर मैं मन - ही - मन बड़ा प्रसन्न हो रहा हूँ कि अब मेरी सारी करनी बन जायगी । बस, यह तुलसी तेरा है, जिस तरह हो, उसी तरह इसपर कृपा कर ॥७॥

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Last Updated : March 24, 2010

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