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विनयावली १०६

विनय पत्रिका - विनयावली १०६

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


राख्यो राम सुस्वामी सों नीच नेह न नातो । एते अनादर हूँ तोहि ते न हातो ॥१॥

जोरे नये नाते नेह फोकट फीके । देहके दाहक , गाहक जीके ॥२॥

अपने अपनेको सब चाहत नीको । मूल दुहूँको दयालु दूलह सीको ॥३॥

जीवको जीवन प्रानको प्यारो । सुखहूको सुख रामसो बिसारो ॥४॥

कियो करैगो तोसे खलको भलो । ऐसे सुसाहब सों तू कुचाल क्यों चलो ॥५॥

तुलसी तेरी भलाई अजहूँ बूझै । राढ़उ राउत होत फिरिकै जूझै ॥६॥

 

भावार्थः - अरे नीच ! तूने श्रीरामचन्द्रजी - सरीखे सुन्दर स्वामीसे न प्रेम ही किया और न सम्बन्ध ही जोड़ा । परन्तु इतना अनादर करनेपर भी उन्होंनें तुझे नहीं छोड़ा ॥१॥

तूने ( जन्म - जन्मान्तरमें ) नये - नये नाते और नया - नया प्रेम जोड़ा सो सब व्यर्थ और नीरस थे तथा ( उलटे ) तेरे शरीरके जलानेवाले और प्राणोंके ग्राहक थे ॥२॥

अपना और अपनोंका तो सभी भला चाहते हैं , किन्तु दोनोंकी भलाईके मूल तो एक श्रीजानकीवल्लभ ही हैं ॥३॥

वह जीवोंके जीवन हैं , प्राणोंके प्यारे हैं और सुखके भी सुख हैं , ऐसे श्रीरामचन्द्रजीको तूने भुला दिया ! ॥४॥

जिन्होंने तेरा सदा भला किया और आगे भी जो भला ही करेंगे , अरे , ऐसे सुन्दर स्वामीके साथ तू इतनी कुचालें क्यों चला ? ॥५॥

रे तुलसी ! यदि तू अब भी समझ जाय तो तेरा भला हो सकता है , क्योंकि बार - बार लड़नेसे कायर भी शूरवीर हो जाता है ॥६॥

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Last Updated : November 11, 2010

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