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विनयावली १८६

विनय पत्रिका - विनयावली १८६

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


दीनबंधु ! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन ।

आपको भले हैं सब , आपनेको कोऊ कहूँ ,

सबको भलो है राम ! रावरो चरन ॥१॥

पाहन , पसु , पतंग , कोल , भील , निसिचर

काँच ते कृपानिधान किये सुबरन ।

दंडक - पुहुमि पाय परसि पुनीत भई ,

उकठे बिटप लागे फूलन - फरन ॥२॥

पतित - पावन नाम बाम हू दाहिनो , देव !

दुनी न दुसह - दुख - दूषन - दरन ।

सीलसिंधु ! तोसों ऊँची - नीचियौ कहत सोभा ,

तोसो तुही तुलसीको आरति - हरन ॥३॥

भावार्थः - हे दीनबन्धो ! यदि आपने इस दीनको ( अपनी शरणसे ) हटा दिया तो फिर इसे और कहीं शरण न मिलेगी । क्योंकि अपनी भलाई चाहनेवाले तो प्रायः सभी हैं , किन्तु अपने दासोंका भला करनेवाले तो आपके चरण ही हैं , ( आपके चरणोंके आश्रयसे भले - बुरे सभीका कल्याण होता है ) ॥१॥

पत्थरकी शिला ( अहल्या ), पशु ( बंदर , रीछ ), पक्षी ( जटायु ), कोल - भील , राक्षस ( विभीषण ) आदिको हे कृपानिधान ! आपने काँचसे सोना बना दिया ( विषयी थे जिनको मुक्त कर दिया ) । दण्डकवनकी भूमि आपके चरणोंका स्पर्श होते ही पवित्र हो गयी और उखड़े हुए सूखे पेड़ फिर फूलने - फलने लगे ॥२॥

आपका पतित - पावन नाम जो आपसे विमुख हैं उनका भी कल्याण करता है ( शत्रुभावसे भजनेवाले भी तर जाते हैं ) । हे देव ! संसारमें असह्य दुःखों और पापोंका नाश करनेवाला आपको छोड़कर दूसरा कोई नहीं है । आप शीलके समुद्र हैं , अतएव आपसे नीची - ऊँची बात कहनेमें भी शोभा ही है ( अधिक क्या कहूँ ) । तुलसीके दुःख दूर करनेवाले तो बस आपसरीखे एक आप ही हैं ( इसीसे शरण पड़ा हूँ ) ॥३॥

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Last Updated : November 13, 2010

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