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विनयावली १५१

विनय पत्रिका - विनयावली १५१

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


नाथ ! कृपाहीको पंथ चितवत दीन हौं दिनराति ।

होइ धौं केहि काल दीनदयालु ! जानि न जाति ॥१॥

सुगुन , ग्यान - बिराग - भगति , सु - साधननिकी पाँति ।

भजे बिकल बिलोकि कलि अघ - अवगुननिकी थाति ॥२॥

अति अनीति - कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति ।

जाउँ कहँ ? बलि जाउँ , कहूँ न ठाउँ मति अकुलाति ॥३॥

आप सहित न आपनो कोउ , बाप ! कठिन कुभाँति ।

स्यामघन ! सीचिये तुलसी , सालि सफल सुखाति ॥४॥

भावार्थः - हे नाथ ! मैं दीन दिन - रात आपकी कृपाकी ही बाट देखता रहता हूँ । हे दीनदयालो ! पता नहीं , आपकी वह कृपा मुझपर कब होगी ? ॥१॥

( दैवी सम्पदाके ) सदगुण , ज्ञान , वैराग्य और भक्ति आदि सुन्दर साधनोंके समूह कलियुगको देखते ही व्याकुल होकर भाग गये । रह गये पापों और दुर्गुणोंके समूह ॥२॥

बड़े - बड़े अन्यायों और अनाचारोंसे पृथ्वी सूर्यसे भी अधिक गरम हो गयी है ( यहाँ सिवा जलनेके शान्तिका कोई साधन ही नहीं रहा ) अब मैं कहाँ जाऊँ ? मैं आपकी बलैया ले रहा हूँ । मुझे और कहीं ठौर - ठिकाना नहीं है । मेरी बुद्धि बड़ी ही व्याकुल हो रही है ॥३॥

हे बापजी ! इस अपनी देहके सहित कोई भी अपना नहीं है ( किसका सहारा लूँ ) । सभी कठोर दुराचारी दिखायी देते हैं । हे घनश्याम ! यह तुलसीरुपी फूली - फली धानकी खेती सूखी जा रही है , अब भी मेघ बनकर ( कृपा जलकी वर्षासे ) इसे सींच दीजि ये ॥४॥

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Last Updated : November 13, 2010

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