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विनयावली २०५

विनय पत्रिका - विनयावली २०५

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


कहा न कियो , कहाँ न गयो , सीस काहि न नायो ?

राम रावरे बिन भये जन जनमि - जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो ॥१॥

आस - बिबस खास दास ह्वै नीच प्रभुनि जनायो ।

हा हा करि दीनता कही द्वार - द्वार बार - बार , परी न छार , मुह बायो ॥२॥

असन - बसन बिनु बावरो जहँ - तहँ उठि धायो ।

महिमा मान प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे , खिनु - खिनु पेट खलायो ॥३॥

असु

नाथ ! हाथ कछु नाहि लग्यो , लालच ललचायो ।

साँच कहौं , नाच कौन सो जो , न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचायो ॥४॥

श्रवन - नयन - मग मन लगे , सब थल पतितायो ।

अग

मूड़ मारि , हिय हारिकै , हित हेरि हहरि अब चरन - सरन तकि आयो ॥५॥

दसरथके ! समरथ तुहीं , त्रिभुवन जसु गायो ।

तुलसी नमत अवलोकिये , बाँह - बोल बलि दै बिरुदावली बुलायो ॥६॥

भावार्थः - मैंने क्या नहीं किया ? मैं कहाँ नहीं गया ? कौन - सी जगह जानेको बची ? और किसके आगे सिर नहीं झुकाया ? किन्तु , हे श्रीरामजी ! जबतक आपका दास नहीं हुआ , तबतक जगतमें बार - बार जन्म ले - लेकर मैंने दसों दिशाओंमें केवल दुःख ही पाया ( कहीं स्वप्नमें भी सुख नहीं मिला ) ॥१॥

( आपका खास दास होनेपर भी मैं भ्रमवश विषयोंसे सुख मिलनेकी ) आशाके वशमें हो अशुद्ध हदयके मालिकोंके सामने अपनेको जताता ( समर्पण करता ) फिरा और बार - बार द्वार - द्वारपर अपनी गरीबी सुनाकर मुँह बाया , पर उसमें खाक भी न पड़ी । ( सुख - शान्तिका कहीं आभास भी नहीं मिला ) ॥२॥

भोजन और वस्त्रके बिना पागलकी तरह जहाँ - तहाँ दौड़ता फिरा । प्राणोंसे प्यारी मान - प्रतिष्ठाको त्याग कर दुष्टोंके सामने क्षण - क्षणमें अपना यह ( खाली ) पेट खोलकर दिखाया ॥३॥

हे नाथ ! ( विषयोंके ) लोभके मारे बहुत ही लालच किया पर कहीं कुछ भी हाथ नहीं लगा । मैं सच कहता हूँ , ऐसा कौन - सा नाच है जो नीच लोभने मुझ निर्लज्जको न नचाया हो ? ॥४॥

कान , आँखें और मनको भी अपने - अपने मार्गमें लगाया , परन्तु सभी जगह उलटा पतित ही होता गया । ( सब राजे - महाराजे भी जाँच लिये । कहीं किसी विषयमें किसीके द्वारा भी सुख शान्ति नहीं मिली , तब ) सिर पीटकर हदयमें हार मान गया - निराश हो गया । इसीसे अब घबराकर आपके चरणोंकी शरण तककर आया हूँ , क्योंकि इसीमें मुझे अपना हित दिखाई देता है ॥५॥

हे दशरथकुमार ! आप ही समर्थ हैं । तीनों लोकमें आपका ही यश गाया जाता है । तुलसी आपके चरणोंमें प्रणाम कर रहा है , इसकी ओर देखिये , मैं आपकी बलैया लेता हूँ । आपकी विरदावलीने ही मुझे बाँह और वचन देकर बुलाया है ( आपके पतित - पावन और शरणागतवत्सल विरदकी देख - रेखमें मेरा कल्याण क्यों न होगा ? ) ॥६॥

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Last Updated : November 13, 2010

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