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लक्ष्मण स्तुति २

विनय पत्रिका - लक्ष्मण स्तुति २

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


राग धनाश्री

जयति

लक्ष्मणानंत भगवंत भूधर, भुजगराज, भुवनेश, भूभारहारी ।

प्रलय - पावक - महाज्वालमाला - वमन, शमन - संताप लीलावतारी ॥१॥

जयति दाशरथि, समर - समरथ, सुमित्रासुवन, शत्रुसूदन, राम - भरत - बंधो ।

चारु - चंपक - वरन, वसन - भूषन - धरन, दिव्यतर, भव्य, लावण्य - सिंधो ॥२॥

जयति गाधेय - गौतम - जनक - सुख - जनक, विश्व - कंटक - कुटिल - कोटि - हंता ।

वचन - चय - चातुरी - परशुधर - गरबहर, सर्वदा रामभद्रानुगंता ॥३॥

जयति सीतेश - सेवासरस, बिषयरसनिरस, निरुपाधि धुरधर्मधारी ।

विपुलबलमूल शार्दूलविक्रम जलदनाद - मर्दन, महावीर भारी ॥४॥

जयति संग्राम - सागर - भयंकर - तरन, रामहित - करण वरबाहु - सेतू ।

उर्मिला - रवन, कल्याण - मंगल - भवन, दासतुलसी - दोष - दवन - हेतू ॥५॥

भावार्थः-- लक्ष्मणजीकी जय हो, जो अनन्त, छः प्रकारके ऐश्वर्यसे युक्त, पृथ्वीको धारण करनेवाले सर्पराज शेषनागके अवतार, सारे संसारके स्वामी, पृथ्वीके भारको दूर करनेवाले, प्रलयकालके समय अग्निकी भयंकर ज्वालाएँ उगलनेवाले, जगतके सन्तापको नाश करनेवाले और अपनी लीलासे ही अवतार धारण करनेवाले हैं ॥१॥

दशरथ - पुत्र श्रीलक्ष्मणजीकी जय हो, जो संग्राममें सर्वशक्तिमान, सुमित्राजीके पुत्र, शत्रुओंका नाश करनेवाले और श्रीरामजी तथा भरतजीके प्यारे भाई हैं । जिनके सुन्दर शरीरका रंग चम्पेके फूलके समान है, जो अत्यन्त दिव्य एवं भव्य वस्त्र और आभूषण धारण किये हैं और सौन्दर्यके महान् समुद्र हैं ॥२॥

विश्वामित्र, गौतम और जनकको सुख उत्पन्न करनेवाले, संसारके लिये करोड़ों काँटेके समान कुटिल राक्षसोंको मारनेवाले, चतुराईकी बहुत - सी बातोंसे ही परशुरामजीका गर्व हरनेवाले और सदा श्रीरामजीके पीछे - पीछे चलनेवाले लक्ष्मणजीकी जय हो ॥३॥

सीतापति श्रीरामजीकी सेवामें परम अनुरागी, विषय - रसके विरागी, कपटरहित होकर श्रीराम - सेवारुपी धर्मकी धुरीको धारण करनेवाले, अनन्त बलके आदिस्थान, सिंहके समान पराक्रमवाले, मेघनादका मर्दन करनेवाले अत्यन्त महावीर लक्ष्मणजीकी जय हो ॥४॥

भयानक संग्रामरुपी समुद्रको अनायास ही पार कर जानेवाले, श्रीरामजीके हितके लिये अपनी सुन्दर भुजाओंका पुल बनानेवाले, उर्मिलाजीके पति, कल्याण तथा मंगलके स्थान और तुलसीदासके पापोंके नाश करनेमें मुख्य कारण, ऐसे श्रीलक्ष्मणजीकी जय हो ॥५॥

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Last Updated : August 25, 2009

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