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विनयावली ७४

विनय पत्रिका - विनयावली ७४

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


सो धौं को जो नाम - लाज तें, नहिं राख्यो रघुबीर ।

कारुनीक बिनु कारन ही हरि हरी सकल भव - भीर ॥१॥

बेद - बिदित, जग - बिदित अजामिल बिप्रवंधु अघ - धाम ।

घोर जमालय जात निवार्यो सुत - हित सुमिरत नाम ॥२॥

पसु पामर अभिमान - सिंधु गज ग्रस्यो आइ जब ग्राह ।

सुमिरत सकृत सपदि आये प्रभु, हरयो दुसह उर दाह ॥३॥

ब्याध, निषाद, गीध, गनिकादिक, अगनित औगुन - मूल ।

नाम - ओटतें राम सबनिकी दूरि करी सब सूल ॥४॥

केहि आचरन घाति हौं तिनतें, रघुकुल - भूषन भूप ।

सीदत तुलसिदास निसिबासर पर्यो भीम तम - कूप ॥५॥

भावार्थः- हे रघुवीर ! ऐसा कौन है, जिसे आपने अपने नामकी लाजसे अपनी शरणमें नहीं रखा ? हे हरि ! आप तो बिना ही कारण करुणा करनेवाले और ( जन्म - मरणरुपी ) संसारके भयको दूर करनेवाले हैं ॥!॥

वेदमें प्रकट है और संसारमें भी प्रसिद्ध है कि अजामिल जातिका ब्राह्मण महान् पापोंका स्थान था । यमलोक जाते समय जब उसने पुत्रके बहाने आपका ' नारायण ' नाम लिया तब आपने उसे यमलोक जानेसे रोक दिया ॥२॥

जब मगरने महान् अभिमानी पामर पशु हाथीको पकड़ लिया, तब उसके एक ही बार स्मरण करनेपर, हे प्रभो ! आप वहाँ दौड़े आये और उसकी दुःसह हार्दिक पीड़ाको मिता दिया ( मगरसे छुड़ाकर उसे परमधाम प्रदान कर दिया ) ॥३॥

व्याध ( वाल्मीकि ), निषाद ( गुह ), गीध ( जटायु ), गणिका ( पिंगला ) इत्यादि अगणित जीव जो पापोंकी जड़ थे, परन्तु हे रामजी ! आपने अपने नामकी ओटसे इन सबकी सारी पीड़ाओंका नाश कर दिया ॥४॥

हे रघुवंशभूषण महाराज ! मैं इन सबोंसे किस आचरणमें कम हूँ ? फिर भी मैं तुलसीदास रात - दिन भयानक अज्ञानरुपी कुएँमें पड़ा दुःख भोग रहा हूँ ( सबको निकाला है तो अब मुझे भी निकालिये ) ॥५॥

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Last Updated : March 24, 2010

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