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विनयावली १८४

विनय पत्रिका - विनयावली १८४

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


राम ! रावरो नाम साधु - सुरतरु है ।

सुमिरे त्रिबिध घाम हरत , पूरत काम ,

सकल सुकृत सरसिजको सरु है ॥१॥

लाभहूको लाभ , सुखहूको सुख , सरबस ,

पतित - पावन , डरहूको डरु है ।

नीचेहूको ऊँचेहूको , रंकहूको रावहूको

सुलभ , सुखद आपनो - सो घरु है ॥२॥

बेद हू , पुरान हू , पुरारि हू पुकारि कह्यो ,

नाम - प्रेम चारिफलहूको फरु है ।

ऐसे राम - नाम सों न प्रीति , न प्रतीति मन ,

मेरे जान , जानिबो सोई नर खरु है ॥३॥

नाम - सो न मातु - पितु , मीत - हित , बंधु - गुरु ,

साहिब सुधी सुसील सुधाकरु है ।

नामसों निबाह नेहु , दीनको दयालु ! देहु ,

दासतुलसीको , बलि , बड़ो बरु है ॥४॥

भावार्थः - हे श्रीरामजी ! साधुओंके लिये तो आपका नाम कल्पवृक्ष है । क्योंकि स्मरण करते ही वह तीनों ( दैहिक , भौतिक और दैविक ) तापोंको हर लेता है और सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है , मनुष्यको पूर्णकाम बना देता है । ( वह आपका नाम ) समस्त पुण्यरुपी कमलोंका सरोवर है ( राम नामका आश्रय लेनेवालेको सभी पुण्योंका फल मिल जाता है ) ॥१॥

वह लाभका भी लाभ , सुखका भी सुख है और ( भक्तोंका ) सर्वस्व है । ( उससे बढ़कर संतोंका कोई लाभ , सुख या धन नहीं है ) वह पतितोंको पावन करनेवाला और ( सबको डरानेवाले यमदूतरुपी महा ) भयको भी भयभीत करनेवाला है । वह नीच - ऊँच और राव - रंक , सभीके लिये सुलभ है ( सभी उसका जप कर सकते हैं ) । सभीको सुख देनेवाला है और अपने निजी घरके समान आराम देनेवला है ॥२॥

वेदोंने , पुराणोंने और शिवजीने भी पुकार - पुकारकर कहा है कि राम - नाममें प्रेम होना ही चारों ( अर्थ , धर्म , काम और मोक्ष ) फलोंका फल है । ऐसे श्रीराम - नामपर जिसके मनमें प्रेम और विश्वास नहीं है , मेरी समझमें उस मनुष्यको गधा समझना चाहिये ( वह गधेके समान जीवनमें मनुष्यत्वके अहंकारका भार ही ढोता है ) ॥३॥

पिता - माता , मित्र - हितू , भाई , गुरु और मालिक इनमेंसे कोई भी श्रीरामनामके समान नहीं है । वह परम सुशील सुधाकर ( चन्द्रमा ) - के समान बुद्धिमान् स्वामी है । ( शरण लेते ही समस्त ताप हर लेता है और मोक्षरुप अमृत पान कराकर सदाके लिये सुखी कर देता है ) । हे दयालु ! मैं बलैया लेता हूँ , इस तुलसीदासको वही महान् बल दीजिये , जिसस्से आपके नामके साथ इस दीनक प्रेम सदा निभ जाय ॥४॥

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Last Updated : November 13, 2010

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