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विनयावली ११९

विनय पत्रिका - विनयावली ११९

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


राम कहत चलु , राम कहत चलु , राम कहत चलु भाई रे ।

नाहिं तौ भव - बेगारि महँ परिहै , छुटत अति कठिनाई रे ॥१॥

बाँस पुरान साज सब अठकठ , सरल तिकोन खटोला रे ।

हमहिं दिहल करि कुटिल करमचँद मंद मोल बिनु डोला रे ॥२॥

बिषम कहार मार - मद - माते चलहिं न पाउँ बटोरा रे ।

मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझोरा रे ॥३॥

काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे ।

जस जस चलिये दूरि तस तस निज बास न भेंट लगाऊ रे ॥४॥

मारग अगम , संग नहिं संबल , नाउँ गाउँकर भूला रे ।

तुलसिदास भव त्रास हरहु अब , होहु राम अनुकूला रे ॥५॥

भावार्थः - अरे भाई ! राम - राम , राम - राम कहते चलो , नहीं तो कहीं संसारकी बेगारमें पकड़े जाओगे तो फिर छूटना अत्यन्त कठिन हो जायगा । ( राजाकी बेगारसे दो - चार दिनोंमें छूटा जा सकता है , पर संसारका जन्ममरणका चक्र तो ज्ञान न होनेतक सदा चलता ही रहेगा । यदि राम - राम जपता चला जायगा , तो मायाजन्य विषयरुपी शत्रु तुझे बेगारमें न पकड़ सकेंगे । क्योंकि रामके दासपर रामकी माया नहीं चलती ॥१॥

कुटिल कर्मचन्दने ( हमारे पूर्व - जन्मकृत पाप - कर्मोंके प्रारब्धने ) बिना ही मोलके ( संसार - चक्रकी कर्मानुसार स्वाभाविक गतिके अनुसार ) ऐसा बुरा खटोला ( भजनहीन तामसप्रधान मनुष्य - शरीर ) हमें दिया है कि जिसके पुराना तो बाँस ( अनादिकालीन अविद्या - मोह ) लगा है , जिसके साज सब अंटसंट हैं , चित्तकी तामस विषयावर वृत्तियाँ हैं , ( जिनके कारण शरीरसे बुरे कर्म होते हैं - मनुष्य कुमार्गमें जाता है ) जो सीधा तिकोन है ( केवल अर्थ , काम और सकाम धर्मकी प्राप्तिमें ही लगा हुआ है , जिसे मोक्षका ध्यान ही नहीं है ) ॥२॥

जिसके ( उठाकर चलनेवाले ) कहार विषम हैं और कामके मदमें मतवाले हो रहे हैं ( शरीरको चलानेवाली पाँच इन्द्रियाँ हैं , कहारोंकी जोड़ी होनी चाहिये , पाँच होनेसे जोड़ी नहीं है इसलिये विषम हैं , एक - से नहीं हैं और पाँचों ही इन्द्रियाँ विषय - भोगोंके पीछे मतवाली हो रही हैं । कुकर्मोके कारण जब शरीर और मन ही तामस विषयाकार हैं , तब इन्द्रियाँ विषयोंसे हटी हुई कैसे हों ? ) और वे पाँव बटोरकर - समान पैर रखकर नहीं चलते । ( इन्द्रियाँ अपने - अपने विषयोंकी ओर दौड़ती हैं ) इससे कभी ऊँचे , कभी नीचे चलनेसे धक्के और झटके लग रहे हैं , इस खींचतानमें बड़ा ही दुःख हो रहा है । ( कभी स्वर्ग या कीर्ति आदिकी इच्छासे धर्म - कार्यमें , कभी भोगोंकी प्राप्तिके लिये संसारके विविध व्यवसायोंमें , कभी कामवश होकर स्त्रियोंके पीछे । सो बी समानभावसे नहीं - शब्द , स्पर्श , रुप , रस , गन्ध इन अपने - अपने विषयोंद्वारा कभी ऊँचे और कभी नीचे जाती हैं , फलस्वरुप जीव महान् क्लेश पाता है ) ॥३॥

रास्तेमें काँटे बिछे हैं , कंकड़ पड़े हैं , ( विषैली बेलें लपेटती हैं और झाड़ियाँ उलझा लेती हैं , इस प्रकार जगह - जगह रुकना पड़ता है । परमात्माको भुलाकर सांसारिक विषयोंके घने जंगलोमें दौड़नेवाली इन्द्रियोंके विषय - नाशरुपी काँटे प्रतिकूल विषयरुपी कंकड़ , घर - परिवारकी ममतारुपी लपेटनेवाली बेलें और कामनारुपी उलझन है , जिनसे पद - पदपर रुककर दुःख भोगते हुए चलना पड़ता है । ) फिर ज्यों - ज्यों आगे बढ़ते हैं त्यों - ही - त्यों अपना घर दूर होता चला जा रहा है । ( संसारके भोगोंमें ज्यों - ज्यों मन फँसता है त्यों - ही - त्यों भगवत् - प्राप्तिरुप निज - निकेतन दूर होता जाता है ) और कोई राह बतानेवाला भी नहीं है । ( विषयी पुरुष संतोंका संग ही नहीं करते , फिर उन्हें सीधा परमार्थका रास्ता कौन बतावे ? संगवाले तो उलटा ही मार्ग बतलाते हैं ) ॥४॥

मार्ग बड़ा कठिन है , ( विषयोंके झाड़ - झंखाड़ों और पहाड़ - जंगलोंसे परिपूर्ण है ) साथमें ( भजनरुपी ) राह - खर्च नहीं है , यहाँतक कि अपने गाँवका नामतक भूल गये हैं ( भूलकर भी परमात्माका नाम नहीं लेते और परमात्म - स्वरुपपर विचार नहीं करते , अतएव भगवानकी कृपा बिना इस शरीरके द्वारा तो परमपदरुपी घर पहुँचना असम्भव ही है ); इसलिये हे श्रीरामजी ! अब आप ही कृपा करके इस तुलसीदासके ( जन्म - मरणरुपी ) संसार - भयको दूर कीजिये ॥५॥

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Last Updated : November 11, 2010

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