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विनयावली २१

विनय पत्रिका - विनयावली २१

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


नाचत ही निसि - दिवस मर्यो ।

तब ही ते न भयो हरि थिर जबतें जिव नाम धर्यो ॥१॥

बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भर्यो ।

चर अरु अचर गगन जल थलमें, कौन न स्वाँग कर्यो ॥२॥

देव - दनुज, मुनि, नाग, मनुज नहिं जाँचत कोउ उबर्यो ।

मेरो दुसह दरिद्र, दोष, दुख काहू तौ न हर्यो ॥३॥

थके नयन, पद, पानि, सुमति, बल, संग सकल बिछुरयो ।

अब रघुनाथ सरन आयो जन, भव - भय बिकल डर्यो ॥४॥

जेहि गुनतें बस होहु रीझि करि, सो मोहि सब बिसर्यो ।

तुलसिदास निज भवन - द्वार प्रभु दीजै रहन पर्यो ॥५॥

भावार्थः-- रात - दिन नाचते - नाचते ही मरा ! हे हरे ! जबसे आपने ' जीव ' नाम रखा, तबसे यह कभी स्थिर नहीं हुआ ॥१॥

( इस मायारुपी नाचमें ) नाना प्रकारकी वासनारुपी चोलियाँ तथा लोभ ( मोह ) आदि अनेक गहने पहनकर, जड़ - चेतन और जल - स्थल - आकाशमें ऐसा कौन - सा स्वाँग है जो मैंने नहीं किया ! ॥२॥

देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मनुष्य आदि ऐसा कोई भी नहीं बचा जिसके आगे मैंने हाथ न फैलाया हो ? परन्तु इनमेंसे किसीने मेरे दारुण दारिद्र्य, दोष और दुःखोंको दूर नहीं किया ॥३॥

मेरे नेत्र, पैर, हाथ, सुन्दर बुद्धि और बल सभी थक गये हैं । सारा संग मुझसे बिछुड़ गया है । अब तो हे रघुनाथजी ! यह संसारके भयसे व्याकुल और भीत दास आपकी शरण आया है ॥४॥

हे नाथ ! जिन गुणोंपर रीझकर आप प्रसन्न होते हैं, वह सब तो मैं भूल चुका हूँ । अब हे प्रभो ! इस तुलसीदासको अपने दरवाजेपर पड़ा रहने दीजिये ॥५॥

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Last Updated : September 09, 2009

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