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विनयावली १८

विनय पत्रिका - विनयावली १८

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो ।

निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो ॥१॥

जदपि बिषय - सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो ।

तदपि न तजत मूढ़ ममताबस, जानतहूँ नहिं जान्यो ॥२॥

जनम अनेक किये नाना बिधि करम - कीच चित सान्यो ।

होइ न बिमल बिबेक - नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो ॥३॥

निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हदै नहिं आन्यो ।

तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो ॥४॥

भावार्थः-- अरे मन ! तूने कभी विश्राम नहीं लिया । अपना सहज सुखस्वरुप भूलकर दिन - रात इन्द्रियोंका खींचा हुआ जहाँ - तहाँ विषयोंमें भटक रहा है ॥१॥

यद्यपि विषयोंके संगसे तूने असह्य संकट सहे है और तू कठिन जालमें फँस गया है तो भी हे मूर्ख ! तू ममताके अधीन होकर उन्हें नहीं छोड़ता । इस प्रकार सब कुछ समझकर भी बेसमझ हो रहा है ॥२॥

अनेक जन्मोंमें नाना प्रकारके कर्म करके तू उन्हींके कीचड़में सन गया है, हे चित्त ! विवेकरुपी जल प्राप्त किये बिना यह कीचड़ कभी साफ नहीं हो सकता । ऐसा वेदपुराण कहते हैं ॥३॥

अपना कल्याण तो परम प्रभु, परम पिता और परम गुरुरुप हरिसे हैं, पर तूने उनको हुलसकर हदयमें कभी धारण नहीं किया, ( दिन - रात विषयोंके बटोरनेमें ही लगा रहा ) हे तुलसीदास ! ऐसे तालाबसे कब प्यास मिट सकती है, जिसके खोदनेमें ही सारा जीवन बीत गया ॥४॥

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Last Updated : September 09, 2009

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