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विनयावली ६४

विनय पत्रिका - विनयावली ६४

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


ताते हौं बार बार देव ! द्वर परि पुकार करत ।

आरति, नति, दीनता कहें प्रभु संकट हरत ॥१॥

लोकपाल सोक - बिकल रावन - डर डरत ।

का सुनि सकुचे कृपालु नर - सरीर धरत ॥२॥

कौसिक, मुनि - तीय, जनक सोच - अनल जरत ।

साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत ॥३॥

केवट, खग, सबरि सहज चरनकमल न रत ।

सनमुख तोहिं होत नाथ ! कुतरु सुफरु फरत ॥४॥

बंधु - बैर कपि - बिभीषन गुरु गलानि गरत ।

सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत ॥५॥

सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत ।

ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत ॥६॥

जाने बिनु राम - रीति पचि पचि जग मरत ।

परिहरि छल सरन गये तुलसिहु - से तरत ॥७॥

भावार्थः- हे नाथ ! मैं तुम्हारे इसी स्वभावको जानकर द्वारपर पड़ा हुआ बार - बार पुकार रहा हूँ कि हे प्रभो ! तुम दुःख, नम्रता और दीनता सुनाते ही सारे संकट हर लेते हो ॥१॥

जब रावणके भयके मारे इन्द्र, कुबेर आदि लोकपाल डरकर शोकसे व्याकुल हो गये थे, तब हे कृपालु ! तुमने क्या सुनकर संकोचसे नरशरीर धारण किया था ? ॥२॥

यह समझमें नहीं आता कि जो विश्वामित्र, अहल्या और जनक चिन्ताकी अग्निमें जले जा रहे थे, वे किस साधनसे शीतल हो गये ? ॥३॥

गुह निषाद, पक्षी ( जटायु ), शबरी आदि स्वभावसे ही तुम्हारे चरण - कमलोंमें रत नहीं थे; किन्तु हे नाथ ! तुम्हारे सामने आते ही ( इन ) बुरे - बुरे वृक्षोंमें भी अच्छे - अच्छे फल फल गये ! भाव यह कि निषाद, शबरी आदि पापी भी तुम्हारी शरणागतिसे तर गये ॥४॥

अपने - अपने भाईके साथ शुत्रता करनेसे सुग्रीव और विभीषण बड़े भारी दुःखसे गले जाते थे । हे रामजी ! तुमने किस सेवासे रीझकर उन्हें भरतजीके समान मान लिया ॥५॥

हनुमानजी तुम्हारी सेवा करते - करते तुम्हारे ही समान हो गये । हे रामजी ! उन ( हनुमानजी ) का नाम लेते ही तुम सबपर भलीभाँति प्रसन्न हो जाते हो ॥६॥

( यह सब क्यों हुआ ? दुःख, नम्रता और दीनताके कारण ही तुमने ऐसा किया ) इसलिये हे नाथ ! तुम्हारी ( रीझनेकी ) रीति न जाननेके कारण ही जगत् अन्यान्य साधनोंमें पच - पचकर मर रहा है । तुम दुःखियों, नम्रौं और दीनोंपर प्रसन्न होते हो यह जानकर जो तुम्हारी शरण हो जाय वह तो तर ही जाता है, क्योंकि कपट छोड़कर तुम्हारी शरणमें ज्ञानेसे तुलसी - जैसे जीव भी तो संसार - सागरसे तर गये ॥७॥

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Last Updated : March 22, 2010

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