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विनयावली १८०

विनय पत्रिका - विनयावली १८०

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


राम ! रावरो सुभाउ , गुन सील महिमा प्रभाउ ,

जान्यो हर , हनुमान , लखन , भरत ।

जिन्हके हिये - सुथरु राम - प्रेम - सुरतरु ,

लसत सरस सुख फूलत फरत ॥१॥

आप माने स्वामी कै सखा सुभाइ भाइ , पति ,

ते सनेह - सावधान रहत डरत ।

साहिब - सेवक - रीति , प्रीति - परिमिति , नीति ,

नेमको निबाह एक टेक न टरत ॥२॥

सुक - सनकादि , प्रहलाद - नारदादि कहैं ,

रामकी भगति बड़ी बिरति - निरत ।

जाने बिनु भगति न , जानिबो तिहारे हाथ ,

समुझी सयाने नाथ ! पगनि परत ॥३॥

छ - मत बिमत , न पुरान मत , एक मत ,

नेति - नेति - नेति नित निगम करत ।

औरनिकी कहा चली ? एकै बात भलै भली ,

राम - नाम लिये तुलसी हू से तरत ॥४॥

भावार्थः - हे रामजी ! आपके स्वभाव , गुण , शीलकी महिमा और प्रभावको श्रीशिवजी , हनुमानजी , लक्ष्मणजी और भरतजीने ही ( तत्त्वसे ) जाना है , ( इसीसे ) उनके हदयरुपी सुन्दर थामलेमें आपके प्रेमका कल्पवृक्ष सुशोभित हो रहा है , जिसमें परम सुखरुपी सरस फूल - फल फूलते और फलते हैं । ( जो भगवानके गुण - शीलकी महिमा जान लेता है , उसका हदय भगवत्प्रेमसे ही भर जाता है ; और जिस हदयमें भगवत्प्रेम भरा है , उसीमें परमानन्द निवास करता है ) ॥१॥

आप अपने स्वभावके वश होकर शिवजीको स्वामी , हनुमानजीको मित्र और लक्ष्मण तथा भरतको अपना भाई मानते हैं और वे सब आपको अपना मालिक मानते हैं , प्रेमसें सदा सावधान रहते हैं और डरा करते हैं ( कि कहीं प्रेमकी अनन्यता और विशुद्धतामें कमी न आ जाय ) । यदि स्वामी और सेवक दोनों इस रीतिसे प्रेम करते रहें और ( प्रेमके ) नीति - नियमोंको सदा निबाहते रहें तो उनके ( प्रेमकी ) टेक कभी टल नहीं सकती और वह सीमाको पहुँच जाती है ॥२॥

शुकदेव , सनकादि , प्रह्लाद और नारद आदि भक्तगण कहते हैं कि परमविरक्त होनेसे ही श्रीरघुनाथजीकी महान् ( अनन्य विशुद्ध ) भक्ति मिलती है । ( भोगोंसे परम वैराग्य उसीको प्राप्त होता है जो भगवानको तत्वसे जान लेता है , अतएव परमात्माके ) ज्ञान बिना भक्तिकी प्राप्ति नहीं होती ; किन्तु वह ज्ञान , हे नाथ ! आपके हाथमें है ( ज्ञान किसी भक्तिकी प्राप्ति नहीं होती ; किन्तु वह ज्ञान , हे नाथ ! आपके हाथमें है ( ज्ञान किसी साधनसे नहीं होता , यह तो भगवत्कृपासे प्राप्त होता है ), इसी बातको समझकर चतुर लोग आपके चरणोंपर आकर गिरते हैं ( सारे साधनोंको छोड़कर आपकी शरणमें आते हैं ) ॥३॥

छः शास्त्रोंके मत भिन्न - भिन्न हैं , पुराणोंका भी मत एक - सा नहीं है और वेद भी नित्य ' नेति - नेति ' करते रहते हैं । फिर औरोंके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ? ( इस अवस्थामें आपकी शरणागतिको छोड़कर आपको तत्त्वसे जाननेके लिये और उपाय ही क्या है ? ) । ( इसलिये ) मुझे तो बस , एक श्रीराम - नामका आश्रय लेना , यही बात अच्छी जान पड़ती है और इसीसे कल्याण हो सकता है , क्योंकि इससे तुलसीदास - सरीखे भी ( संसार - सागरसे ) तर गये हैं ॥४॥

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Last Updated : November 13, 2010

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