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विनयावली १०९

विनय पत्रिका - विनयावली १०९

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


कहाँ जाउँ , कासों कहौं , कौन सुनै दीनकी ।

त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी ॥१॥

जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैं ।

निराधारके अधार गुनगन तेरे हैं ॥२॥

गजराज - काज खगराज तजि धायो को ।

मोसे दोस - कोस पोसे , तोसे माय जायो को ॥३॥

मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके ।

किये बहुमोल तैं करैया गीध - श्राधके ॥४॥

तुलसीकी तेरे ही बनाये , बलि , बनैगी ।

प्रभुकी बिलंब - अंब दोष - दुख जनैगी ॥५॥

भावार्थः - कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ? कौन इस ( साधनरुपी धनसे हीन ) दीनकी सुनेगा ? मुझ - सरीखे सब तरहसे साधनहीनकी गति तो तीनों लोकोंमें एकमात्र तू ही है ॥१॥

यों तो दुनियामें घर - घर ' जगदीश ' भरे हैं ( सभी अपनेको ईश्वर कहते हैं ) पर जिसके कोई आधार नहीं उसके लिये तो एक तेरे गुणसमूहका ( गान ) ही अधार है । भाव यह कि तेरे ही गुणोंका गान कर वह संसार - सागरको पार करता है ॥२॥

गजराजको छुड़ानेके लिये गरुड़को छोड़कर कौन दौड़ा था ? जिसने मुझ - जैसे पापोंके भण्डारका भी पालन - पोषण किया , ऐसा एक तुझे छोड़कर और किसको किस माताने जना है ? ॥३॥

मुझ - जैसे क्रूर , कायर , कुपूत और आधी कौड़ीकी कीमतवालोंको भी , है जटायुके श्राद्ध करनेवाले ! तूने बहुमूल्य बना दिया ॥४॥

बलिहारी ! तुलसीकी ( बिगड़ी हुई ) बात तेरे ही बनाये बन सकेगी । यदि तूने मेरा उद्धार करनेमें देर की , तो फिर वह देररुपी माता दुःख और दोषरुषी सन्तान ही जनेगी । भाव यह कि तू कृपा करके शीघ्र उद्धार न करेगा तो मैं पाप और दुःखोंसे ही घिर जाऊँगा ॥५॥

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Last Updated : November 11, 2010

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