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गंगा स्तुति ४

विनय पत्रिका - गंगा स्तुति ४

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


ईस - सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ - पताल - धरनि ।

सुर - नर - मुनि - नाग - सिद्ध - सुजन मंगल - करनि ॥१॥

देखत दुख - दोष - दुरित - दाह - दारिद - दरनि ।

सगर - सुवन साँसति - समनि, जलनिधि जल भरनि ॥२॥

महिमाकी अवधि करसि बहु बिधि हरि - हरनि ।

तुलसी करु बानि बिमल, बिमल बारि बरनि ॥३॥

भावार्थः-- हे गंगाजी ! तुम शिवजीके सिरपर विराजती हो; आकाश, पाताल और पृथ्वी - इन तीनों मार्गोंसे बहती हुई शोभायमान होती हो । देवता, मनुष्य, मुनि, नाग, सिद्ध और सज्जनोंका तुम कल्याण करती हो ॥१॥

तुम देखते ही दुःख, दोष, पाप, ताप और दरिद्रताका नाश कर देती हो । तुमने सगरके साठ हजार पुत्रोंको यम - यातनासे छुड़ा दिया । जलनिधि समुद्रमें तुम सदा जल भरा करती हो ॥२॥

ब्रह्माके कमण्डलुमें रहकर, विष्णुके चरणसे निकलकर और शिवजीके मस्तकपर विराजकर तुम्हींने तीनोंकी महिमा बढ़ा रखी है । हे गंगाजी ! जैसा तुम्हारा निर्मल पापनाशक जल है, तुलसीदासकी वाणीको भी वैसी ही निर्मल बना दो, जिससे वह सर्वपापनाशक रामचरितका गान कर सके ॥३॥

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Last Updated : August 19, 2009

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