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विनयावली ७०

विनय पत्रिका - विनयावली ७०

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


ते नर नरकरुप जीवत जग भव - भंजन - पद - बिमुख अभागी ।

निसिबासर रुचिपाप असुचिमन, खलमति - मलिन, निगमपथ - त्यागी ॥१॥

नहिं सतसंग भजन नहिं हरिको, स्रवन न राम - कथा - अनुरागी ।

सुत - बित - दार - भवन - ममता - निसि सोवत अति, न कबहुँ मति जागी ॥२॥

तुलसिदास हरिनाम - सुधा तजि, सठ हठि पियत बिषय - बिष माँगी ।

सूकर - स्वान - सृगाल - सरिस जन, जनमत जगत जननि - दुख लागी ॥३॥

भावार्थः- वे अभागे मनुष्य संसारमें नरकरुप होकर जी रहे हैं, जो जन्म - मरणरुप भवका भंजन करनेवाले श्रीभगवानके चरणोंसे विमुख हैं । उनकी रुचि रात - दिन पापोंमें ही लगी रहती है । उनका मन अशुद्ध रहता है । उन दुष्टोंकी बुद्धि मलिन रहती है, और वे वेदोक्त मार्गको छोड़े हुए हैं ॥१॥

न तो वे संतोंका संग ही करते हैं, न भगवद्भजन करते हैं और न उनके कानोंको श्रीरामकी कथा प्यारी लगती है । वे तो बस, सदा - सर्वदा स्त्री - पुन - धन और मकान आदिकी ममतारुपी रात्रिमें ही अचेत सोते रहते हैं । उनकी बुद्धि ( इस ' मेरे - मेरे ' की निद्रासे ) कभी जागती ही नहीं ॥२॥

हे तुलसीदास ! जो दुष्ट श्रीहरि - नाम - रुपी अमृतको छोड़कर हठपूर्वक विषयरुपी जहर माँग - माँगकर ( धन - पुत्र आदिकी कामना करके ) पीते हैं, वे मनुष्य सूअर, कुत्ते और गीदड़के समान जगतमें केवल अपनी माँको दुःख देनेके लिये ही जन्म लेते हैं ॥३॥

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Last Updated : March 22, 2010

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