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शिव स्तुति २

विनय पत्रिका - शिव स्तुति २

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


राग धनाश्री

दानी कहुँ संकर - सम नाहीं ।

दीन - दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं ॥१॥

मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं ।

ता ठाकुरकौ रीझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं ॥२॥

जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं ।

बेद - बिदित तेहि पद पुरारि - पुर, कीट पतंग समाहीं ॥३॥

ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं ।

तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं ॥४॥

भावार्थः-- शंकरके समान दानी कहीं नहीं है । वे दीनदयालु हैं, देना ही उनके मन भाता है, माँगनेवाले उन्हें सदा सुहाते हैं ॥१॥

वीरोंमें अग्रणी कामदेवको भस्म करके फिर बिना ही शरीर जगतमें उसे रहने दिया, ऐसे प्रभुका प्रसन्न होकर कृपा करना मुझसे क्योंकर कहा जा सकता है ? ॥२॥

करोड़ों प्रकारसे योगकी साधना करके मुनिगण जिस परम गतिको भगवान् हरिसे माँगते हुए सकुचाते हैं वही परम गति त्रिपुरारि शिवजीकी पुरी काशीमें कीट - पतंग भी पा जाते हैं, यह वेदोंसे प्रकट है ॥३॥

ऐसे परम उदार भगवान् पार्वतीपतिको छोड़कर जो लोग दूसरी जगह माँगने जाते हैं, उन मूर्ख माँगनेवालोंका पेट भलीभाँति कभी नहीं भरता ॥४॥

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Last Updated : August 11, 2009

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