मराठी मुख्य सूची|मराठी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|श्री गुरू ग्रंथ साहिब|सुखमनी साहिब| अष्टपदी १७ सुखमनी साहिब अष्टपदी १ अष्टपदी २ अष्टपदी ३ अष्टपदी ४ अष्टपदी ५ अष्टपदी ६ अष्टपदी ७ अष्टपदी ८ अष्टपदी ९ अष्टपदी १० अष्टपदी ११ अष्टपदी १२ अष्टपदी १३ अष्टपदी १४ अष्टपदी १५ अष्टपदी १६ अष्टपदी १७ अष्टपदी १८ अष्टपदी १९ अष्टपदी २० अष्टपदी २१ अष्टपदी २२ अष्टपदी २३ अष्टपदी २४ सुखमनी साहिब - अष्टपदी १७ हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे. Tags : granthasahibsikhsukhamani sahibग्रंथसाहिबसिखसुखमनी साहिब अष्टपदी १७ Translation - भाषांतर ( गुरु ग्रंथ साहिब - पान क्र. २८४ )श्लोक आदि सचु जुगादि सचु ॥है भि सचु नानक होसी भि सचु ॥१॥पद १ लेचरन सति सति परसनहार ।पूजा सति सति सेवदार ॥दरसनु सति सति पेखनहार ।नामु सति सति धिआवनहार ॥आपि सति सति सभ धारी ।आपे गुण आपे गुणकारी ॥सबदु सति सति प्रभु बकता ।सुरति सति सति जसु सुनता ॥बुझनहार कउ सति सभ होइ ।नानक सति सति प्रभु सोइ ॥१॥पद २ रेसति सरुपु रिदै जिनि मानिआ ।करन करावन तिनि मूलु पछानिआ ॥जा कै रिदै बिस्वासु प्रभ आइआ ।ततु गिआनु तिसु मनि प्रगटाइआ ॥भै ते निरभउ होइ बसाना ।जिस ते उपजिआ तिसु माहि समाना ।बसतु माहि ले बसतु गडाई ।ता कउ भिंन न कहना जाई ॥बूझै बूझनहारु बिबेक ।नाराइन मिले नानक एक ॥२॥पद ३ रेठाकुर का सेवकु आगिआकारी ।ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥ठाकूर के सेवक कै मनि परतीति ।ठाकुर के सेवक की निरमल रीति ॥ठाकुर कउ सेवकु जानै संगि ।प्रभका सवकु नाम कै रंगि ॥सेवक कउ प्रभ पालनहारा ।सेवक की राखै निरंकारा ॥सो सेवकु जिसु दइआ प्रभु धारै ।नानक सो सेवकु सारि सासि समारै ॥३॥पद ४ थेअपुने जन का परदा ढाकै ।अपने सेवक की सरपर राखै ॥अपने दास कउ देइ वडाई ।अपने सेवक कउ नामु जपाई ॥अपने सेवक की आपि पति राखै ।ता की गति मिति कोइ न लाखै ॥प्रभ के सेवक कउ को न पहूचै ।प्रभ के सेवक ऊच ते ऊचे ॥जो प्रभि अपनी सेवा लाइआ ।नानक सो सेवकु दह दिसि प्रगटाइआ ॥४॥पद ५ वेनीकी कीरी महि कल राखै ।भसम करै लसकर कोटि लाखै ॥जिस का सासु न काढत आपि ।ता कउ राखत दे करि हाथ ॥मानस जतन करत बहु भाति ।तिस के करतब बिरथे जाति ॥मारै न राखै अवरु न कोइ ।सरब जीआ का राखा सोइ ॥काहे सोच करहि रे प्राणी ।जपि नानक प्रभ अलख विडाणी ॥५॥पद ६ वे बारं बार बार प्रभु जपीऐ ।पी अंम्रितु इहु मनु तनु ध्रपीऐ ॥नाम रतनु जिनि गुरमुखि पाइसा ।तिसु किछु अवरु नाही द्रिसटाइआ ॥नामु धनु नामो रुपु रंगु ।नामो सुखु हरि नाम का संगु ॥नाम रसि जो जन त्रिपताने ।मन तन नामहि नामि समाने ॥ऊठत बैठत सोवत नाम ।कहु नानक जन कै सद काम ॥६॥पद ७ वेबोलहु जसु जिहबा दिनु राति ।प्रभि अपनै जन कीनी दाति ॥करहि भगति आतम कै चाइ ।प्रभ अपने सिउ रहहि समाइ ॥जो होआ होवत सो जानै ।प्रभ अपने का हुकमु पछानै ॥तिस की महिमा कउन बखानु ।तिस का गुनु कहि एक न जानु ॥आठ पहर प्रभ बसहि हजूरे ।कहु नानक सेई जन पूरे ॥७॥पद ८ वेमन मेरे तिन की ओट लेहि ।मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥जिनि जनि अपना प्रभू पछाता ।सो जनु सरब थोक का दाता ॥तिस की सरनि सरब सुख पावहि ।तिस कै दरसि सभ पाप मिटावहि ॥अवर सिआनप सगली छागु ॥आवनु जानु न होवी तेरा ।नानक तिसु जन के पूजहु सद पैरा ॥८॥ N/A References : N/A Last Updated : December 28, 2013 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP