सुखमनी साहिब - अष्टपदी १७

हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.


( गुरु ग्रंथ साहिब - पान क्र. २८४ )

श्लोक

आदि सचु जुगादि सचु ॥
है भि सचु नानक होसी भि सचु ॥१॥

पद १ ले

चरन सति सति परसनहार ।
पूजा सति सति सेवदार ॥
दरसनु सति सति पेखनहार ।
नामु सति सति धिआवनहार ॥
आपि सति सति सभ धारी ।
आपे गुण आपे गुणकारी ॥
सबदु सति सति प्रभु बकता ।
सुरति सति सति जसु सुनता ॥
बुझनहार कउ सति सभ होइ ।
नानक सति सति प्रभु सोइ ॥१॥

पद २ रे

सति सरुपु रिदै जिनि मानिआ ।
करन करावन तिनि मूलु पछानिआ ॥
जा कै रिदै बिस्वासु प्रभ आइआ ।
ततु गिआनु तिसु मनि प्रगटाइआ ॥
भै ते निरभउ होइ बसाना ।
जिस ते उपजिआ तिसु माहि समाना ।
बसतु माहि ले बसतु गडाई ।
ता कउ भिंन न कहना जाई ॥
बूझै बूझनहारु बिबेक ।
नाराइन मिले नानक एक ॥२॥

पद ३ रे

ठाकुर का सेवकु आगिआकारी ।
ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥
ठाकूर के सेवक कै मनि परतीति ।
ठाकुर के सेवक की निरमल रीति ॥
ठाकुर कउ सेवकु जानै संगि ।
प्रभका सवकु नाम कै रंगि ॥
सेवक कउ प्रभ पालनहारा ।
सेवक की राखै निरंकारा ॥
सो सेवकु जिसु दइआ प्रभु धारै ।
नानक सो सेवकु सारि सासि समारै ॥३॥

पद ४ थे

अपुने जन का परदा ढाकै ।
अपने सेवक की सरपर राखै ॥
अपने दास कउ देइ वडाई ।
अपने सेवक कउ नामु जपाई ॥
अपने सेवक की आपि पति राखै ।
ता की गति मिति कोइ न लाखै ॥
प्रभ के सेवक कउ को न पहूचै ।
प्रभ के सेवक ऊच ते ऊचे ॥
जो प्रभि अपनी सेवा लाइआ ।
नानक सो सेवकु दह दिसि प्रगटाइआ ॥४॥

पद ५ वे

नीकी कीरी महि कल राखै ।
भसम करै लसकर कोटि लाखै ॥
जिस का सासु न काढत आपि ।
ता कउ राखत दे करि हाथ ॥
मानस जतन करत बहु भाति ।
तिस के करतब बिरथे जाति ॥
मारै न राखै अवरु न कोइ ।
सरब जीआ का राखा सोइ ॥
काहे सोच करहि रे प्राणी ।
जपि नानक प्रभ अलख विडाणी ॥५॥

पद ६ वे

बारं बार बार प्रभु जपीऐ ।
पी अंम्रितु इहु मनु तनु ध्रपीऐ ॥
नाम रतनु जिनि गुरमुखि पाइसा ।
तिसु किछु अवरु नाही द्रिसटाइआ ॥
नामु धनु नामो रुपु रंगु ।
नामो सुखु हरि नाम का संगु ॥
नाम रसि जो जन त्रिपताने ।
मन तन नामहि नामि समाने ॥
ऊठत बैठत सोवत नाम ।
कहु नानक जन कै सद काम ॥६॥

पद ७ वे

बोलहु जसु जिहबा दिनु राति ।
प्रभि अपनै जन कीनी दाति ॥
करहि भगति आतम कै चाइ ।
प्रभ अपने सिउ रहहि समाइ ॥
जो होआ होवत सो जानै ।
प्रभ अपने का हुकमु पछानै ॥
तिस की महिमा कउन बखानु ।
तिस का गुनु कहि एक न जानु ॥
आठ पहर प्रभ बसहि हजूरे ।
कहु नानक सेई जन पूरे ॥७॥

पद ८ वे

मन मेरे तिन की ओट लेहि ।
मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥
जिनि जनि अपना प्रभू पछाता ।
सो जनु सरब थोक का दाता ॥
तिस की सरनि सरब सुख पावहि ।
तिस कै दरसि सभ पाप मिटावहि ॥
अवर सिआनप सगली छागु ॥
आवनु जानु न होवी तेरा ।
नानक तिसु जन के पूजहु सद पैरा ॥८॥

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Last Updated : December 28, 2013

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