मराठी मुख्य सूची|मराठी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|श्री गुरू ग्रंथ साहिब|सुखमनी साहिब| अष्टपदी ५ सुखमनी साहिब अष्टपदी १ अष्टपदी २ अष्टपदी ३ अष्टपदी ४ अष्टपदी ५ अष्टपदी ६ अष्टपदी ७ अष्टपदी ८ अष्टपदी ९ अष्टपदी १० अष्टपदी ११ अष्टपदी १२ अष्टपदी १३ अष्टपदी १४ अष्टपदी १५ अष्टपदी १६ अष्टपदी १७ अष्टपदी १८ अष्टपदी १९ अष्टपदी २० अष्टपदी २१ अष्टपदी २२ अष्टपदी २३ अष्टपदी २४ सुखमनी साहिब - अष्टपदी ५ हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे. Tags : granthasahibsikhsukhamani sahibग्रंथसाहिबसिखसुखमनी साहिब अष्टपदी ५ Translation - भाषांतर ( गुरु ग्रंथ साहिब प्रान क्र. २६८ )श्लोकदेनहारु प्रभ छोडि कै लागहि आन सुआइ ।नानक कहू न सीझई बिनु नावै पति जाई ॥१॥पद १ लेदस बसतू ले पाछै पावै ।एक बसतु कारनि बिखोटि गवावै ॥एक भी न देइ दस भी हिरि लेइ ।तउ मूड़ा कहु कहा करेइ ॥जिसु ठाकुर सिउ नाही चारा ।ता कउ कीजै सद नमसकारा ॥जा कै मनि लागा प्रभु मीठा ।सरब सूक ताहू मनि वूठा ॥जिसु जन अपना हुकमु मनाइआ ।सरब थोक नानक तिनि पाइआ ॥१॥पद २ रे अगनत साहु अपनी दे रासि ।खात पीत बरतै अनद उलासि ॥अपुनी अमान कछु बहुरि साहु लेइ ।अगिआनी मनि रोसु करेइ ॥अपनी परतीति आप ही खोवै ।बहुरि उस का बिस्वासु न होवै ॥जिस की बसतु तिसु आगै राखै ।प्रभ की आगिआ मानै माथै ॥उस ते चउगुण करै निहालु ।नानक साहिबु सदा दइआलु ॥२॥पद ३ रेअनिक भाति माइआ के हेत ।सरपर होवत जानु अनेत ॥बिरख की छाइआ सिउ रंगु लावै ।ओह बिनसै उहु मनि पछुतावै ॥जो दीसै सो चालनहारु ।लपटि रहिओ तह अंध अंधारु ॥बटाऊ सिउ जो लावै नेह ।ता कउ हाथि न आवै केह ॥मन हरि के नाम की प्रीति सुखदाई ।करि किरपा नानक आपि लए लाई ॥३॥पद ४ थे मिथिआ तनु धनु कुटंबु सबाइआ ।मिथिआ उउमै ममता माइआ ॥निथिआ राज जोबन धन माल ।मिथिआ काम क्रोध बिकराल ॥मिथिआ रथ हसती अस्व बसत्रा ।मिथिआ रंग संगि माइआ पेखि हसता ॥मिथिआ आपस ऊपरि करत गुमानु ॥असथिरु भगति साध की सरन ।नानक जपि जपि जीवै हरि के चरन ॥४॥पद ५ वेमिथिआ स्त्रवन पर निंदा सुनहि ।मिथिआ हसत पर दरब कउ हिरहि ॥मिथिआ नेत्र पेखत पर त्रिअ रुपाद ।मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद ॥मिथिआ चरन पर बिकार कउ धावहि ।मिथिआ मन पर लोभु लुभावहि ॥मिथिआ तन नही पर उपकारा । मिथिआ बासु लेत बिकारा ॥बिनु बूझे मिथिआ सभ भए ।सफल देह नानक हरि नाम लए ॥५॥पद ६ वे बिरथी साकत की आरजा ।साच बिना कह होवत सूचा ॥बिरथा नाम बिना तनु अंध ।मुखि आवत ता कै दुरगंध ॥बिनु सिमरन दिनु रैनि ब्रिथा बिहाइ ।मेघ बिना जिउ खेती जाइ ॥गोबिद भजन बिनु ब्रिथे सभ काम ।जिउ किरपन के निरारथ दाम ॥धंनि धंनि ते जन जिह घटि बसिलो हरि नाउ ॥नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥६॥पद ७ वेरहत अवर कछु अवर कमावत ।मनि नही प्रीति मुखहु गंढ लावत ॥जाननहार प्रभू परबीन ।बाहरि भेख न काहून भीन ॥अवर उपदेसै आपि न करै ।आवत जावत जनमै मरै ॥जिस कै अंतरि बसै निरंकारु ।तिस की सीख तरै संसारु ॥जो तुम भाने तिन प्रभु जाता ।नानक उन जन चरन परात ॥७॥पद ८ वे करउ बेनती पारब्रहमु सभु जानै ।अपना कीआ आपहि मानै ॥आपहि आप आपि करत निबेरा ।किसै दूरि जनावत किसै बुझावत नेरा ॥उपाव सिआनप सगल ते रहत ।सभु कछु जानै आतम की रहत ॥जिसु भावै तिसु लए लड़ि लाइ ।थान थनंतरि रहिआ समाइ ॥सो सेवकु जिसु किरपा करी ।निमख निमख जपि नानक हरी ॥८॥ N/A References : N/A Last Updated : December 28, 2013 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP