मराठी मुख्य सूची|मराठी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|श्री गुरू ग्रंथ साहिब|सुखमनी साहिब| अष्टपदी १४ सुखमनी साहिब अष्टपदी १ अष्टपदी २ अष्टपदी ३ अष्टपदी ४ अष्टपदी ५ अष्टपदी ६ अष्टपदी ७ अष्टपदी ८ अष्टपदी ९ अष्टपदी १० अष्टपदी ११ अष्टपदी १२ अष्टपदी १३ अष्टपदी १४ अष्टपदी १५ अष्टपदी १६ अष्टपदी १७ अष्टपदी १८ अष्टपदी १९ अष्टपदी २० अष्टपदी २१ अष्टपदी २२ अष्टपदी २३ अष्टपदी २४ सुखमनी साहिब - अष्टपदी १४ हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे. Tags : granthasahibsikhsukhamani sahibग्रंथसाहिबसिखसुखमनी साहिब अष्टपदी १४ Translation - भाषांतर ( गुरु ग्रंथ साहिब - पान क्र. २८१ )श्लोकतजहु सिआनप सुरि जनहु सिमरहु हरि हरि राइ ।एक आस हरि मनि रखहु नानक दुखु भरमु भउ जाई ॥१॥पद - १मानुख की टेक ब्रिथी सभ जानु ।दे वन कउ एकै भगवानु ॥जिस कै दीऐ रहै अघाइ ।बहुरि न त्रिसना लागै आइ ॥मारै राखै एको आपि ।मानुख कै किछु नाही हाथि ॥तिस का हुकमु बुझि सुखु होइ ।तिस का नामु रखु कंठि परोइ ॥सिमरि सिमरि सिमरि प्रभु सोइ ।सिमरि सिमरि सिमरि प्रभु सोइ ।नानक बिघनु न लागै कोइ ॥१॥पद २ रेउसतति मन महि करि निरंकार ।करि मन मेरे सति बिउहार ॥निरमल रसना अंम्रित पीउ ।सदा सुहेला करि लोहि जीउ ॥नैनहु पेखु ठाकुर का रंगु ।साध संगि बिनसै सभ संगु ॥चरन चलउ मारगि गोबिंद ।मिटहि पाप जपीऐ हरि बिंद ॥कर हरि करम स्रवनि हरि कथा ।हरि दरगह नानक ऊजल मथा ॥२॥पद - ३ रेबडभागी ते जन जन माहि ।सदा सदा हरि के गुन गाहि ॥राम नाम जो करहि बीचार ।से धनवंत गनी संसार ॥मनि तनि मुखि बोलहि हरि मुखी ।सदा सदा जानहु ते सुखी ॥एको एकु एकु पछानै ।इत उत की ओहु सोझी जानै ॥नाम संगि जिस का मनु मानिआ ।नानक तिनहि निरंजनु जानिआ ॥३॥पद ४ थेगुर प्रसादि आपन आपु सुझै ।तिस की जानहु त्रिसना बुजै ॥साध संगि हरि हरि जसु कहत ।सरब रोग ते ओहु हरि जनु रह्त ॥अनदिनु कीरतनु केवल बख्यानु ।ग्रिहसत महि सोई निरबानु ॥एक उपरि जिसु जन की आसा ।तिस की कटिऐ जम की फासा ॥पारबहम की जिसु मनि भूख ।नानक तिसहि न लागहि दूख ॥४॥पद ५ वेजिस कउ हरि प्रभु मनि चिति आवै ।सो संतु सुहेला नही डुलावे ॥जिसु प्रभु अपुना किरपा करै ।सो सेवकु कहु किस ते डरै ॥जैसा सा तैसा द्रिसटाइआ ।अपुने कारज महि आपि समाइआ ॥सोधत सोधत सोधत सीझिआ ।गुर प्रसादि ततु सभु बूझिआ ॥जब देखउ तब सभु किछु मूलु ।नानक सो सूखमु सोई असथूलु ॥५॥पद - ६नह किछु जनमै नह किछु मरै ।आपन चलितु आप ही करै ॥आवनु जावनु द्रिसटि अनद्रिसटि ।आगिआकारी धारी सभ स्रिसटि ॥आपे आपि सगल महि आपि ।अनिक जगुति रचि थापि उथापि ॥अबिनासी नाही किछु खंड ।धारण धारि रहिओ ब्रहमंड ॥अलख अभेव पुरख परताप ।आपि जपाए त नानक जाप ॥६॥पद ७ वेजिन प्रभु जाता सु सोभावंत ।सगल संसारु उधरै तिन मंत ॥प्रभ के सेवक सगल उधारन ।प्रभ के सेवक दूख बिसारन ॥आपे मेलि लए किरपाल ।गुर का सबदु जपि भए निहाल ॥उन की सेवा सोई लागै ।जिस नो क्रिपा करहि बडभागै ॥नामु जपत पावहि बिस्रामु ।नानक तिन पुरख कउ ऊतम करि मानु ॥७॥पद ८ वेजो किछु करै सु प्रभ कै रंगि ।सदा सदा बसै हरि संगि ॥सहज सुभाइ होवै सो होइ ।करणै हारू पछाणै सोइ ॥प्रभ का कीआ जन मीठ लगाना ।जैसा सा तैसा द्रिसटाना ॥जिस ते उपजे तिसु माहि समाए ।ओइ सुख निधान उनहू बनि आए ॥आपस कउ आपि दीनो मानु ।नानक प्रभ जनु एको जानु ॥८॥ N/A References : N/A Last Updated : December 28, 2013 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP