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मन ! तू क्यों पछतावे ...

विविध - मन ! तू क्यों पछतावे ...

’विविध’ शीर्षकके द्वारा संतोंके अन्यान्य भावोंकी झलक दिखलानेवाली वाणीको प्रस्तुत किया है ।


मन ! तू क्यों पछतावे रे, दिल तू क्यों घबरावेरे

सिरपर श्रीगोपाल बेडा पार लगावेरे ॥ टेर ॥ १ ॥

निज करनी ने याद करुँ जब जियो घबरावेरे ।

प्रभुकी महिमा सुण-सुण दिलमें धीरज आवेरे ॥ मन ॥ २ ॥

शरणागतकी लाज तो सब ही ने आवेरे ।

तिरलोकी को नाथ लाज हरि नाहिं गमवारे ॥ मन ॥ ३ ॥

जो कोई अनन्य-चित्त से हरि को ध्यान लगावेरे ।

वाके घर को योगक्षेम हरि आप निभावेरे ॥ मन ॥ ४ ॥

जो मेरा अपराध गिनो तो, अन्त न आवेरे ।

ऐसो दीनदयालु हरि चित्त एक न लावेरे ॥ मन ॥ ५॥

पतित-उधारन बिरद प्रभुको वेद बतावेरे ।

मोर गरीबके काज बिरद हरि नाथ लजावेरे ॥ ६ ॥

महिमा अपरम्पार तो सुर-नर-मुनि गावेरे ।

ऐसो नन्दकिशोर, भक्तको ओड़ निभावेरे ॥ मन ॥ ७ ॥

वो है रमा-निवास भक्तकी त्रास मिटावेरे ।

तू मत होय उदास कृष्णका दास कहावेरे ॥ मन ॥ ८ ॥

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Last Updated : January 22, 2014

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