तुलसीदास कृत दोहावली - भाग २४

रामभक्त श्रीतुलसीदास सन्त कवि आणि समाज सुधारक होते. तुलसीदास भारतातील भक्ति काव्य परंपरेतील एक महानतम कवि होत.


साधनसे मनुष्य ऊपर उठता है और साधन बिना गिर जाता है

उरबी परि कलहीन होइ ऊपर कलाप्रधान ।
तुलसी देखु कलाप गति साधन घन पहिचान ॥

सज्जनोको दुष्टोंका संग भी मङ्गलदायक होता है

तुलसी संगति पोच की सुजनहि होति म-दानि ।
ज्यों हरि रूप सुताहि तें कीनि गोहारि आनि ॥

कलियुगमें कुटिलताकी वृद्धि

कलि कुचालि सुभ मति हरनि सरलै दंडै चक्र ।
तुलसी यह निहचय भई बाढ़ि लेति नव बक्र ॥

आपसमें मेल रखना उत्तम है

गो खग खे खग बारि खग तीनों माहिं बिसेक ।
तुलसी पीवैं फिरि चलैं रहैं फिरै सँग एक ॥

सब समय समतामे स्थित रहनेवाले पुरुष ही श्रेष्ठ हैं

साधन समय सुसिद्धि लहि उभय मूल अनुकूल ।
तुलसी तीनिउ समय सम ते महि मंगल मूल ॥

जीवन किनका सफल है ?

मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ ।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ ॥

पिताकी आज्ञाका पालन सुखका मूल है

अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन ।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन ॥

स्त्रीके लिये पतिसेवा ही कल्याणदायिनी है

सोरठा

सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय ॥

शरणागतका त्याग पापका मूल है

दोहा

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि ।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहिं बिलोकत हानि ॥
तुलसी तृन जलकूल को निरबल निपट निकाज ।
कै राखे कै सँग चलै बाँह गहे की लाज ॥

कलियुगका वर्णन

रामायन अनुहरत सिख जग भयो भारत रीति ।
तुलसी सठ की को सुनै कलि कुचालि पर प्रीति ॥
पात पात कै सींचिबो बरी बरी कै लोन ।
तुलसी खोटें चतुरपन कलि डहके कहु को न ॥
प्रीति सगाई सकल बिधि बनिज उपायँ अनेक ।
कल बल छल कलि मल मलिन डहकत एकहि एक ॥
दंभ सहित कलि धरम सब छल समेत ब्यवहार ।
स्वारथ सहित सनेह सब रूचि अनुहरत अचार ॥
चोर चतुर बटमार नट प्रभु प्रिय भँडुआ भंड ।
सब भच्छक परमारथी कलि सुपंथ पाषंड ॥
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहीं ।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ॥

सोरठा

जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ ।
मन क्रम बचन लबार ते बकता कलिकाल महुँ ॥

दोहा

ब्रह्मग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात ।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ॥
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि ।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ॥
साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान ।
भगति निरूपहिं भगत कलि निंदहिं बेद पुरान ॥
श्रुति संमत हरिभगति पथ संजुत बिरति बिबेक ।
तेहि परिहरिहिं बिमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ॥
सकल धरम बिपरीत कलि कल्पित कोटि कुपंथ ।
पुन्य पराय पहार बन दुरे पुरान सुग्रन्थ ॥
धातुबाद निरुपाधि बर सद्गुरू लाभ सुमीत ।
देव दरस कलिकाल में पोथिन दुरे सभीत ॥
सुर सदननि तीरथ पुरिन निपट कुचालि कुसाज ।
मनहुँ मवा से मारि कलि राजत सहित समाज ॥
गोंड़ गवाँर नृपाल महि जमन महा महिपाल ।
साम न दान न भेद कलि केवल दंड कराल ॥
फोरहिं सिल लोढ़ा सदन लागें अढुक पहार ।
कायर कूर कुपूत कलि घष घर सहस डहार ॥
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान ।
जेन केन बिधि दीन्हे दान करइ कल्यान ॥
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास ।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास ॥

और चाहे जो भी घट जाय,
भगवान से प्रेम नहीं घटना चाहिये

श्रवन घटहुँ पुनि दृग घटहुँ घटउ सकल बल देह ।
इते घटें घटिहै कहा जौं न घटै हरिनेह ॥

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Last Updated : January 18, 2013

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