तुलसीदास कृत दोहावली - भाग १९

रामभक्त श्रीतुलसीदास सन्त कवि आणि समाज सुधारक होते. तुलसीदास भारतातील भक्ति काव्य परंपरेतील एक महानतम कवि होत.


भूप-दरबारकी निन्दा

बड़े बिबुध दरबार तें भूमि भूप दरबार ।
जापक पूजत पेखिअत सहत निरादर भार ॥

छल-कपट सर्वत्र वर्जित है

बिनु प्रपंच छल भीख भलि लहिअ न दिएँ कलेस ।
बावन बलि सों छल कियो दियो उचित उपदेस ॥
भलो भले सों छल किएँ जनम कनौड़ो होइ ।
श्रीपति सिर तुलसी लसति बलि बावन गति सोइ ॥
बिबुध काज बावन बलिहि छलो भलो जिय जानि ।
प्रभुता तजि बस भे तदपि मन की गइ न गलानि ॥

जगत में सब सीधोंको तंग करते है

सरल बक्र गति पंच ग्रह चपरि न चितवत काहु ।
तुलसी सूधे सूर ससि समय बिडंबित राहु ॥

दुष्ट-निन्दा

खल उपकार बिकार फल तुलसी जान जहान ।
मेढुक मर्कट बनिक बक्र कथा सत्य उपखान ॥
तुलसी खल बानी मधुर सुनि समुझिअ हियँ हेरि ।
राम राज बाधक भई मूढ़ मंथरा चेरि ॥
जोंक सूधि मन कुटिल गति खल बिपरीत बिचारु ।
अनहित सोनित सोष सो सो हित सोषनिहारु ॥
नीच गुड़ि ज्यों जानिबो सुनि लखि तुलसीदास ।
ढीलि दिएँ गिरि परत महि खैंचत चढ़त अकास ॥
भरदर बरसत कोस सत बचै जे बूँद बराइ ।
तुलसी तेउ खल बचन कर हए गए न पराइ ॥
पेरत कोल्हू मेलि तिल तिली सनेही जानि ।
देखि प्रीति की रीति यह अब देखिबी रिसानि ॥
सहबासी काचो गिलहिं पुरजन पाक प्रबीन ।
कालछेप केहि मिलि करहिं तुलसी खग मृग मीन ॥
जासु भरोसें सोइऐ राखि गोद में सीस ।
तुलसी तासु कुचाल तें रखवारो जगदीस ॥
मार खोज लै सौंह करि करि मत लाज न त्रास ।
मुए नीच ते मीच बिनु जे इन कें बिस्वास ॥
परद्रोही परदार रत परधन पर अपबाद ।
ते नर पावँर पापमय देह धरें मनुजाद ॥

कपटीको पहचानना बड़ा कठिन है

बचन बेष क्यों जानिए मन मलीन नर नारि ।
सूपनखा मृग पूतना दसमुख प्रमुख बिचारि ॥

कपटी से सदा डरना चाहिये

हँसनि मिलनि बोलनि मधुर कटु करतब मन माँह ।
छुवत जो सकुचइ सुमति सो तुलसी तिन्ह कि छाहँ ॥

कपट ही दुष्टताका स्वरूप है

कपट सार सूची सहस बाँधि बचन परबास ।
कियो दुराउ चहौ चातुरीं सो सठ तुलसीदास ॥

कपटी कभी सुख नहीं पाता

बचन बिचार अचार तन मन करतब छल छूति ।
तुलसी क्यों सुख पाइऐ अंतरजामिहि धूति ॥
सारदूल को स्वाँग करि कूकर की करतूति ।
तुलसी तापर चाहिऐ कीरति बिजय बिभूति ॥

पाप ही दुःखका मूल है

बड़े पाप बाढ़े किए छोटे किए लजात ।
तुलसी ता पर सुख चहत बिधि सों बहुत रिसात ॥

अविवेक ही दुःखका मूल है

देस काल करता करम बचन बिचार बिहीन ।
ते सुरतरु तर दारिदी सुरसरि तीर मलीन ॥
साहस ही कै कोप बस किएँ कठिन परिपाक ।
सठ संकट भाजन भए हठि कुजाति कपि काक ॥
राज करत बिनु काजहीं करहिं कुचालि कुसाजि ।
तुलसी ते दसकंध ज्यों जइहैं सहित समाज ॥
राज करत बिनु काजहीं ठटहिं जे कूर कुठाट ।
तुलसी ते कुरुराज ज्यों जइहै बारह बाट ॥

विपरीत बुद्धि बिनाशका लक्षण है

सभा सुयोधन की सकुनि सुमति सराहन जोग ।
द्रोन बिदुर भीषम हरिहि कहहिं प्रपंची लोग ॥
पांडु सुअन की सदसि ते नीको रिपु हित जानि ।
हरि हर सम सब मानिअत मोह ग्यान की बानि ॥
हित पर बढ़इ बिरोध जब अनहित पर अनुराग ।
राम बिमुख बिधि बाम गति सगुन अघाइ अभाग ॥
सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि ।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि ॥

जोशमें आकर अनधिकार कार्य करनेवाला पछताता है

भरुहाए नट भाँट के चपरि चढ़े संग्राम ।
कै वै भाजे आइहै के बाँधे परिनाम ॥

समयपर कष्ट सह लेना हितकर होता है

लोक रीति फूटी सहहिं आँजी सहइ न कोइ ।
तुलसी जो आँजी सहइ सो आँधरो न होइ ॥

भगवान सबके रक्षक है

भागें भल ओड़ेहुँ भलो भलो न घालें घाउ ।
तुलसी सब के सीस पर रखवारो रघुराउ ॥

लड़ना सर्वथा त्याज्य है

सुमति बिचारहिं परिहरहिं दल सुमनहुँ संग्राम ।
सकुल गए तनु बिनु भए साखी जादौ काम ॥
ऊलह न जानब छोट करि कलह कठिन परिनाम ।
लगति अगिनि लघु नीच गृह जरत धनिक धन धाम ॥

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Last Updated : January 18, 2013

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