तुलसीदास कृत दोहावली - भाग २२

रामभक्त श्रीतुलसीदास सन्त कवि आणि समाज सुधारक होते. तुलसीदास भारतातील भक्ति काव्य परंपरेतील एक महानतम कवि होत.


मनके चार कण्टक हैं

तूठहिं निज रुचि काज करि रूठहिं काज बिगारि ।
तीय तनय सेवक सखा मन के कंटक चारि ॥

कौन निरादर पाते हैं ?

दीरघ रोगी दारिदी कटुबच लोलुप लोग ।
तुलसी प्रान समान तउ होहिं निरादर जोग ॥

पाँच दुःखदायी होते है

पाही खेती लगन बट रिन कुब्याज मग खेत ।
बैर बड़े सों आपने किए पाँच दुख हेत ॥

समर्थ पापीके वैर करना उचित नहीं

धाइ लगै लोहा ललकि खैंचि लेइ नइ नीचु ।
समरथ पापी सों बयर जानि बिसाही मीचु ॥

शोचनीय कौन है

सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग ।
सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग ॥

परमार्थसे विमुख ही अंधा है

तुलसी स्वारथ सामुहो परमारथ तन पीठि ।
अंध कहें दुख पाइहै डिठिआरो केहि डीठि ॥

मनुष्य आँख होते हुए भी मृत्युको नहीं देखते

बिन आँखिन की पानहीं पहिचानत लखि पाय ।
चारि नयन के नारि नर सूझत मीचु न माय ॥

मूढ़ उपदेश नहीं सुनते

जौ पै मूढ़ उपदेस के होते जोग जहान ।
क्यों न सुजोधन बोध कै आए स्याम सुजान ॥

सोरठा

फुलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद ।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम ॥

दोहा

रीझि आपनी बूझि पर खीझि बिचार बिहीन ।
ते उपदेस न मानहीं मोह महोदधि मीन ॥

बार-बार सोचनेकी आवश्यकता

अनसमुझें अनुसोचनो अवसि समुझिऐ आपु ।
तुलसी आपु न समुझिऐ पल पल पर परितापु ॥

मूर्खशिरोमणि कौन हैं ?

कूप खनत मंदिर जरत आएँ धारि बबूर ।
बवहिं नवहिं निज काज सिर कुमति सिरोमनि कूर ॥

ईश्वरविमुखकी दुर्गति ही होती है

निडर ईस तें बीस कै बीस बाहु सो होइ ।
गयो गयो कहैं सुमति सब भयो कुमति कह कोइ ॥

जान-बूझकर अनीति करनेवालेको उपदेश देना व्यर्थ हैं

जो सुनि समुझि अनीति रत जागत रहे जु सोइ ।
उपदेसिबो जगाइबो तुलसी उचित न होइ ॥
बहु सुत बहु रुचि बहु बचन बहु अचार ब्यवहार ।
इनको भलो मनाइबो यह अग्यान अपार ॥

जगत के लोगोंको रिझानेवाला मूर्ख हैं

लोगनि भलो मनाव जो भलो होन की आस ।
करत गगन को गेंडुँआ सो सठ तुलसीदास ॥
अपजस जोग कि जानकी मनि चोरी की कान्ह ।
तुलसी लोग रिझाइबो करषि कातिबो नान्ह ॥
तुलसी जु पै गुमान को होतो कछू उपाउ ।
तौ कि जानकिहि जानि जियँ परिहरते रघुराउ ॥

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Last Updated : January 18, 2013

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