तुलसीदास कृत दोहावली - भाग २

रामभक्त श्रीतुलसीदास सन्त कवि आणि समाज सुधारक होते. तुलसीदास भारतातील भक्ति काव्य परंपरेतील एक महानतम कवि होत.


रामप्रेमके बिना सब व्यर्थ है

रसना साँपिनि बदन बिल जे न जपहिं हरिनाम ।
तुलसी प्रेम न राम सों ताहि बिधाता बाम ॥
हिय फाटहुँ फूटहुँ नयन जरउ सो तन केहि काम ।
द्रवहिं स्त्रवहिं पुलकइ नहीं तुलसी सुमिरत राम ॥
रामहि सुमिरत रन भिरत देत परत गुरु पाँय ।
तुलसी जिन्हहि न पुलक तनु ते जग जीवत जायँ ॥

सोरठा

हृदय सो कुलिस समान जो न द्रवइ हरिगुन सुनत ।
कर न राम गुन गान जीह सो दादुर जीह सम ॥
स्त्रवै न सलिल सनेहु तुलसी सुनि रघुबीर जस ।
ते नयना जनि देहु राम करहु बरु आँधरो ॥
रहैं न जल भरि पूरि राम सुजस सुनि रावरो ।
तिन आँखिन में धूरि भरि भरि मूठी मेलिये ॥

प्रार्थना

बारक सुमिरत तोहि होहि तिन्हहि सम्मुख सुखद ।
क्यों न सँभारहि मोहि दया सिंधु दसरत्थ के ॥

रामकी और रामप्रेमकी महिमा

साहिब होत सरोष सेवक को अपराध सुनि ।
अपने देखे दोष सपनेहु राम न उर धरे ॥

दोहा

तुलसी रामहि आपु तें सेवक की रुचि मीठि ।
सीतापति से साहिबहि कैसे दीजै पीठि ॥
तुलसी जाके होयगी अंतर बाहिर दीठि ।
सो कि कृपालुहि देइगो केवटपालहि पीठि ॥
प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान ।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान ॥

उद्बोधन

रे मन सब सों निरस ह्वै सरस राम सों होहि ।
भलो सिखावन देत है निसि दिन तुलसी तोहि ॥
हरे चरहिं तापहि बरे फरें पसारहिं हाथ ।
तुलसी स्वारथ मीत सब परमारथ रघुनाथ ॥
स्वारथ सीता राम सों परमारथ सिय राम ।
तुलसी तेरो दूसरे द्वार कहा कहु काम ॥
स्वारथ परमारथ सकल सुलभ एक ही ओर ।
द्वार दूसरे दीनता उचित न तुलसी तोर ॥
तुलसी स्वारथ राम हित परमारथ रघुबीर ।
सेवक जाके लखन से पवनपूत रनधीर ॥
ज्यों जग बैरी मीन को आपु सहित बिनु बारि ।
त्यों तुलसी रघुबीर बिनु गति आपनी बिचारि ॥

तुलसीदासजीकी अभिलाषा

राम प्रेम बिनु दूबरो राम प्रेमहीं पीन ।
रघुबर कबहुँक करहुगे तुलसिहि ज्यों जल मीन ॥

रामप्रेमकी महत्ता

राम सनेही राम गति राम चरन रति जाहि ।
तुलसी फल जग जनम को दियो बिधाता ताहि ॥
आपु आपने तें अधिक जेहि प्रिय सीताराम ।
तेहि के पग की पानहीं तुलसी तनु को चाम ॥
स्वारथ परमारथ रहित सीता राम सनेहँ ।
तुलसी सो फल चारि को फल हमार मत एहँ ॥
जे जन रूखे बिषय रस चिकने राम सनेहँ ।
तुलसी ते प्रिय राम को कानन बसहि कि गेहँ ॥
जथा लाभ संतोष सुख रघुबर चरन सनेह ।
तुलसी जो मन खूँद सम कानन बसहुँ कि गेह ॥
तुलसी जौं पै राम सों नाहिन सहज सनेह ।
मूँड़ मुड़ायो बादिहीं भाँड़ भयो तजि गेह ॥

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Last Updated : January 18, 2013

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