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विनयावली ४०

विनय पत्रिका - विनयावली ४०

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


कहु केहि कहिय कृपानिधे ! भव - जनित बिपति अति ।

इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥१॥

जे सुख - संपति, सरग - नरक संतत सँग लागी ।

हरि ! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥२॥

मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे ।

जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥३॥

जद्यपि मैं अपराध - भवन, दुख - समन मुरारे ।

तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥४॥

भावार्थः- हे कृपानिधान ! इस संसार - जनित भारी विपत्तिका दुखड़ा आपको छोड़कर और किसके सामने रोऊँ ? इन्द्रियाँ तो सब अपने - अपने विषयोंमें आसक्त होकर उनके लिये व्याकुल हो रही हैं ॥१॥

ये तो सदा सुख - सम्पत्ति और स्वर्ग - नरककी उलझनमें फँसी रहती ही हैं; पर हे हरे ! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन इन्द्रियोंका ही साथ दे रहा है ॥२॥

हे देव ! मैं अत्यन्त दीन - दुःखी हूँ - आपका दयालु नाम सुनकर मैंने आपमें मन लगाया हैं; इतनेपर भी हे रघुवीर ! हे धीर ! यदि आप मुझपर दया नहीं करते तो मुझे कैसे दुःख नहीं होगा ? ॥३॥

अवश्य ही मैं अपराधोंका घर हूँ; परन्तु हे मुरारे ! आप तो ( अपराधका विचार न करके ) दुःखोंका नाश ही करनेवाले हैं । मुझ तुलसीदासको आपसे सदा यही आशा है, क्योंकि आप अबतक अनेक पतितों ( अपराधियों ) - का उद्धार कर चुके हैं ( इसलिये अब मेरा भी अवश्य करेंगे ) ॥४॥

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Last Updated : September 12, 2009

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