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विनयावली २०

विनय पत्रिका - विनयावली २०

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


ऐसी मूढ़ता या मनकी ।

परिहरि राम - भगति - सुरसरिता, आस करत ओसकनकी ॥१॥

धूम - समूह निरखि चातक ज्यों, तृषित जानि मति घनकी ।

नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी ॥२॥

ज्यों गच - काँच बिलोकि सेन जड़ छाँह आपने तनकी ।

टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी ॥३॥

कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि ! जानत हौ गति जनकी ।

तुलसीदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी ॥४॥

भावार्थः-- इस मनकी ऐसी मूर्खता है कि यह श्रीराम - भक्तिरुपी गंगाजीको छोड़कर ओसकी बूँदोंसे तृप्त होनेकी आशा करता है ॥१॥

जैसे प्यासा पपीहा धुएँका गोट देखकर उसे मेघ समझ लेता है, परन्तु वहाँ ( जानेपर ) न तो उसे शीतलता मिलती है और न जल मिलता है, धुएँसे आँखें और फूट जाती हैं । ( यही दशा इस मनकी है ) ॥२॥

जैसे मूर्ख बाज काँचकी फर्शमें अपने ही शरीरकी परछाईं देखकर उसपर चोंच मारनेसे वह टूट जायगी इस बातको भूखके मारे भूलकर जल्दीसे उसपर टूट पड़ता है ( वैसे ही यह मेरा मन भी विषयोंपर टूट पड़ता है ) ॥३॥

हे कृपाके भण्डार ! इस कुचालका मैं कहाँतक वर्णन करुँ ? आप तो दासोंकी दशा जानते ही हैं । हे स्वामिन् ! तुलसीदासका दारुण दुःख हर लीजिये और अपने ( शरणागत - वत्सलातारुपी ) प्रणकी रक्षा कीजिये ॥४॥

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Last Updated : September 09, 2009

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