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विनयावली २३

विनय पत्रिका - विनयावली २३

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम ।

जेहि करुना सुनि श्रवन दीन - दुख, धावत हौ तजि धाम ॥१॥

नागराज निज बल बिचारि हिय, हारि चरन चित दीन्हों ।

आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न कीन्हों ॥२॥

दितिसुत - त्रास - त्रसित निसिदिन प्रहलाद - प्रतिग्या राखी ।

अतुलित बल मृगराज - मनुज - तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी ॥३॥

भूप - सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु, राखु कह्यो नर - नारी ।

बसन पूरि, अरि - दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी ॥४॥

एक एक रिपुते त्रासित जन, तुम राखे रघुबीर ।

अब मोहिं देत दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव - पीर ॥५॥

लोभ - ग्राह, दनुजेस - क्रो ध, कुरुराज - बंधु खल मार ।

तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार ॥६॥

भावार्थः-- हे श्रीरामजी ! आपने उस कृपाको कहाँ भुला दिया, जिसके कारण दीनोंके दुःखकी करुण - ध्वनि कानोंमें पड़ते ही आप अपना धाम छोड़कर दौड़ा करते हैं ॥१॥

जब गजेन्द्रने अपने बलकी ओर देखकर और हदयमें हार मानकर आपके चरणोंमें चित्त लगाया, तब आप उसकी आर्त्त पुकार सुनते ही गरुड़को छोड़कर तुरंत वहाँ पहुँचे, तनिक - सी भी देर नहीं की ॥२॥

हिरण्यकशिपुसे रात - दिन भयभीत रहनेवाले प्रह्लादकी प्रतिज्ञा आपने रखी, महान बलवान सिंह और मनुष्यका - सा ( नृसिंह ) शरीर धारण कर उस दैत्यको मार डाला, वेद इस बातका साक्षी है ॥३॥

' नर ' के अवतार अर्जुनकी पत्नी द्रौपदीने जब राजसभामें ( अपनी लज्जा जाते देखकर ) सब राजाओंके सामने पुकारकर कहा कि ' हे नाथ ! मेरी रक्षा कीजिये ' तब हे दैत्यशत्रु ! आपने वहाँ ( द्रौपदीकी लाज बचानेको ) वस्त्रोंके ढेर लगाकर तथा शत्रुओंका सारा घमंड चूर्णकर बड़ी कृपा की ॥४॥

हे रघुनाथजी ! आपने इन सब भक्तोंको एक - एक शत्रुके द्वारा सताये जानेपर ही बचा लिया था । पर यहाँ मुझे तो बहुत - से शत्रु असह्य कष्ट दे रहे हैं । मेरी यह भव - पीड़ा आप क्यों नहीं दूर करते ? ॥५॥

लोभरुपी मगर, क्रोधरुपी दैत्यराज हिरण्यकशिपु, दुष्ट कामदेवरुपी दुर्योधनका भाई दुःशासन, ये सभी मुझ तुलसीदासको दारुण दुःख दे रहे हैं । हे उदार रामचन्द्रजी ! मेरे इस दारुण दुःखका नाश कीजिये ॥‍६॥

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Last Updated : September 09, 2009

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