हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|पुस्तक|विनय पत्रिका|
विनयावली ११५

विनय पत्रिका - विनयावली ११५

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


लाज न लागत दास कहावत ।

सो आचरन बिसारि सोच तजि , जो हरि तुम कहँ भावत ॥१॥

सकल संग तजि भजत जाहि मुनि , जप तप जाग बनावत ।

मो - सम मंद महाखल पाँवर , कौन जतन तेहि पावत ॥२॥

हरि निरमल , मलग्रसित हदय , असमंजस मोहि जनावत ।

जेहि सर काक कंक बक सूकर , क्यों मराल तहँ आवत ॥३॥

जाकी सरन जाइ कोबिद दारुन त्रयताप बुझावत ।

तहूँ गये मद मोह लोभ अति , सरगहुँ मिटत न सावत ॥४॥

भव - सरिता कहँ नाउ संत , यह कहि औरनि समुझावत ।

हौं तिनसों हरि । परम बैर करि , तुम सों भलो मनावत ॥५॥

नाहिंन और ठौर मो कहँ , ताते हठि नातो लावत ।

राखु सरन उदार - चूड़ामनि ! तुलसिदास गुन गावत ॥६॥

भावार्थः - हे हरे ! मुझे ( आपका ) दास कहलानेमें लज्जा भी नहीं आती ! जो आचरण आपको अच्छा लगता है , उसे मैं बिना किसी विचारके छोड़ देता हूँ । ( संतोके आचरण छोड़ देनेमें मुझे पश्चात्तापतक भी नहीं होता । इतनेपर भी मैं आपका दास बनता हूँ ॥१॥

मुनिगण जिसे सब प्रकारकी आसक्ति छोड़कर भजते हैं , जिसके लिये जप , तप , और यज्ञ करते हैं , उस प्रभुको मुझजैसा मूर्ख , महान दुष्ट और पापी कैसे पा सकता है ? ॥२॥

भगवान् तो विशुद्ध हैं और मेरा हदय पापपूर्ण महामलिन है , मुझे यह असमंजस जान पड़ता है । जिस तालाबमें कौए , गीध , बगुले और सूअर रहते हैं वहाँ हंस क्यों आने लगे ? भाव यह कि मेरे काम , क्रोध , लोभ , मोहभरे मलिन हदयमें भगवान् नहीं आवेंगे । वह तो उन्हीं मुनियोंके हदय - मन्दिरमें विहार करेंगे जिन्होंने निष्काम कर्म , वैराग्य , भक्ति , ज्ञान आदि साधनोंद्वारा अपने हदयको निर्मल बना लिया है ॥३॥

जिन ( तीर्थों ) - की शरणमें जाकर ज्ञानके साधक पुरुष सांसारिक तीनों कठिन तापोंको बुझाते हैं , वहाँ भी जानेपर मुझे तो अहंकार , अज्ञान और लोभ और भी अधिक सतावेंगे , क्योंकि सौतियाडाह स्वर्गमें भी नहीं छूटता , वहाँ भी साथ लगा फिरता है ॥४॥

मैं दूसरोंको यह कहकर समझाता फीरता हूँ कि ' देखो , संसाररुपी नदीके पार जानेके लिये संतजन ही नौका हैं ' - किन्तु हे हरे ! मैं ( स्वयं ) उनसे बड़ी भारी शत्रुता करके आपसे अपन कल्याण चाहता हूँ ॥५॥

( पर ऐसा होनेपर भी कहाँ जाऊँ ) मुझे और कहीं ठौर - ठिकाना नहीं है , इसीसे ( नालायक होता हुआ भी ) आपसे जबरदस्ती सम्बन्ध जोड़ता फिरता हूँ । हे दाताओंमें शिरोमणि रघुनाथ ! यह तुलसीदास आपके गुण गा रहा है , ( भलाई - बुराईकी ओर न देखकर अपने दयालु स्वभावसे ही ) इसको अपना लीजिये ॥६॥

N/A

References : N/A
Last Updated : November 11, 2010

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP