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शिव स्तुति १

विनय पत्रिका - शिव स्तुति १

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


को जाँचिये संभु तजि आन ।

दीनदयालु भगत - आरति - हर, सब प्रकार समरथ भगवान ॥१॥

कालकूट - जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये बिष पान ।

दारुन दनुज, जगत - दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान ॥२॥

जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान ।

सो गति मरन - काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान ॥३॥

सेवत सुलभ, उदार कलपतरु, पारबती - पति परम सुजान ।

देहु काम - रिपु राम - चरन - रति, तुलसिदास कहँ कृपानिधान ॥४॥

भावार्थः-- भगवान् शिवजीको छोड़कर और किससे याचना की जाय ? आप दीनोंपर दया करनेवाले, भक्तोंके कष्ट हरनेवाले और सब प्रकारसे समर्थ ईश्वर हैं ॥१॥

समुद्र - मन्थनके समय जब कालकूट विषकी ज्वालासे सब देवता और राक्षस जल उठे, तब आप अपने दीनोंपर दया करनेके प्रणकी रक्षाके लिये तुरंत उस विषको पी गये । जब दारुण दानव त्रिपुरासुर जगतको बहुत दुःख देने लगा, तब आपने उसको एक ही बाणसे मार डाला ॥२॥

जिस परम गतिको संत - महात्मा, वेद और सब पुराण महान् मुनियोंके लिये भी दुर्लभ बताते हैं, हे सदाशिव ! वही परम गति काशीमें मरनेपर आप सभीको समानभावसे देते हैं ॥३॥

हे पार्वतीपति ! हे परम सुजान !! सेवा करनेपर आप सहजमें ही प्राप्त हो जाते हैं, आप कल्पवृक्षके समान मुँहमाँगा फल देनेवाले उदार हैं, आप कामदेवके शत्रु हैं । अतएव, हे कृपानिधान ! तुलसीदासको श्रीरामके चरणोंकी प्रीति दीजिये ॥४॥

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Last Updated : August 11, 2009

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