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विनयावली ६६

विनय पत्रिका - विनयावली ६६

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


[ १ ]

जिव जबतें हरितें बिलगान्यो । तबतें देह गेह निज जान्यो ॥

मायाबस स्वरुप बिसरायो । तेही भ्रमतें दारुन दुख पायो ॥

पायो जो दारुन दुसह दुख, सुख - लेस सपनेहुँ नहिं मिल्यो ।

भव - सूल, सोक अनेक जेहि, तेहि पंथ तू हठि हठि चल्यो ॥

बहु जोनि जनम, जरा, बिपति, मतिमंद ! हरि जान्यो नहीं ।

श्रीराम बिनु बिश्राम मूढ़ ! बिचारु, लखि पायो कहीं ॥

[ २ ]

आनँद - सिंधु - मध्य तव बासा । बिनु जाने कस मरसि पियासा ॥

मृग - भ्रम - बारि सत्य जिय जानी । तहँ तू मगन भयो सुख मानी ॥

तहँ मगन मज्जसि, पान करि, त्रयकाल जल नाहीं जहाँ ।

निज सहज अनुभव रुप तव खल ! भूलि अब आयो तहाँ ॥

निरमल, निरंजन निरबिकार, उदार सुख तैं परिहर्यो ।

निःकाज राज बिहाय नृप इव सपन कारागृह पर्यो ॥

[ ३ ]

तैं निज करम - डोरि दृढ़ कीन्हीं । अपने करनि गाँठि गहि दीन्हीं ॥

ताते परबस पर्यो अभागे । ता फल गरभ - बास - दुख आगे ॥

आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ ।

सिर हेठ, ऊपर चरन, संकट बात नहीं पूछै कोऊ ॥

सोनित - पुरीष जो मूत्र - मल कृमि - कर्दमावृत सोवई ।

कोमल सरीर, गँभीर बेदन, सीस धुनि - धुनि रोवई ॥

[ ४ ]

तू निज करम - जाल जहँ घेरो । श्रीहरि संग तज्यो नहिं तेरो ॥

बह्बुबिधि प्रतिपालन प्रभु कीन्हों । परम कृपालु ग्यान तोहि दीन्हों ॥

तोहि दियो ग्यान - बिबेक, जनम अनेककी तब सुधि भई ।

तेहि ईसकी हौं सरन, जाकी बिषम माया गुनमई ॥

जेहि किये जीव - निकाय बस, रसहीन, दिन - दिन अति नई ।

सो करौ बेगि सँभरि श्रीपति, बिपति, महँ जेहि मति दई ॥

[ ५ ]

पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी । अब जग जाइ भजौं चक्रपानी ॥

ऐसेहि करि बिचार चुप साधी । प्रसव - पवन प्रेरेउ अपराधी ॥

प्रेर्यो जो परम प्रचंड मारुत, कष्ट नाना तैं सह्यो ।

सो ग्यान, ध्यान, बिराग, अनुभव जातना - पावक दह्यो ॥

अति खेद ब्याकुल, अलप बल, छिन एक बोलि न आवई ।

तव तीब्र कष्ट न जान कोउ, सब लोग हरषित गावई ॥

[ ६ ]

बाल दसा जेते दुख पाये । अति असीम, नहिं जाहिं गनाये ॥

छुधा - ब्याधि - बाधा भइ भारी । बेदन नहिं जानै महतारी ॥

जननी न जानै पीर सो, केहि हेतु सिसु रोदन करै ।

सोइ करै बिबिध उपाय, जातें अधिक तुव छाती जरै ॥

कौमार, सैसव अरु किसोर अपार अघ को कहि सकै ।

ब्यतिरेक तोहि निरदय ! महाखल ! आन कहु को सहि सकै ॥

[ ७ ]

जोबन जुवती सँग रँग रात्यो । तब तू महा मोह - मद मात्यो ॥

ताते तजी धरम - मरजादा । बिसरे तब सब प्रथम बिषादा ॥

बिसरे बिषाद, निकाय - संकट समुझि नहिं फाटत हियो ।

फिरि गर्भगत - आवर्त संसृतिचक्र जेहि होइ सोइ कियो ॥

कृमि - भस्म - बिट - परिनाम तनु, तेहि लागि जग बैरी भयो ।

परदार, परधन, द्रोहपर, संसार बाढ़ै नित नयो ॥

[ ८ ]

देखत ही आई बिरुधाई । जो तैं सपनेहुँ नाहिं बुलाई ॥

ताके गुन कछु कहे न जाहीं । सो अब प्रगट देखु तनु माहीं ॥

सो प्रगट तनु जरजर जराबस, ब्याधि, सूल सतावई ।

सिर - कंप, इन्द्रिय - सक्ति प्रतिहत, बचन काहु न भावई ॥

गृहपालहूतें अति निरादर, खान - पान न पावई ।

ऐसिहु दसा न बिराग तहँ, तृष्णा - तरंग बढ़ावई ॥

[ ९ ]

कहि को सकै महाभव तेरे । जनम एकके कछुक गनेरे ॥

चारि खानि संतत अवगाहीं । अजहुँ न करु बिचार मन माहीं ॥

अजहुँ बिचारु, बिकार तजि, भजु राम जन - सुखदायकं ।

भवसिंधु दुस्तर जलरथं, भजु चक्रधर सुरनायकं ॥

बिनु हेतु करुनाकर, उदार, अपार - माया - तारनं ।

कैवल्य - पति, जगपति, रमापति, प्रानपति, गतिकारनं ॥

[ १० ]

रघुपति - भगति सुलभ, सुखकारी । सो त्रयताप - सोक - भय - हारी ॥

बिनु सतसंग भगति नहिं होई । ते तब मिलैं द्रवै जब सोई ॥

जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु - संगति पाइये ।

जेहि दरस - परस - समागमादिक पापरासि नसाइये ॥

जिनके मिले दुख - सुख समान, अमानतादिक गुन भये ।

मद - मोह लोभ - बिषाद - क्रोध सुबोधतें सहजहिं गये ॥

[ ११ ]

सेवत साधु द्वैत - भय भागै । श्रीरघुबीर - चरन लय लागै ॥

देह - जनित बिकार सब त्यागै । तब फिरि निज स्वरुप अनुरागै ॥

अनुराग सो निज रुप जो जगतें बिलच्छन देखिये ।

सन्तोश , सम, सीतल, सदा दम, देहवंत न लेखिये ॥

निरमल, निरामय, एकरस, तेहि हरष - सोक न ब्यापई ।

त्रैलोक - पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ॥

[ १२ ]

जो तेहि पंथ चलै मन लाई । तौ हरि काहे न होहिं सहाई ॥

जो मारग श्रुति - साधु दिखावै । तेहि पथ चलत सबै सुख पावै ॥

पावै सदा सुख हरि - कृपा , संसार - आसा तजि रहै ।

सपनेहुँ नहीं सुख द्वैत - दरसन, बात कोटिक को कहै ॥

द्विज, देव, गुरु, हरि, संत बिनु संसार - पार न पाइये ।

यह जानि तुलसीदास त्रासहरन रमापति गाइये ॥

 

[ १ ]

भावार्थः- हे जीव ! जबसे तू भगवानसे अलग हुआ तभीसे तूने शरीरको अपना घर मान लिया । मायाके वश होकर तूने अपने ' सच्चिदानन्द ' स्वरुपको भुला दिया, और इसी भ्रमके कारण तुझे दारुण दुःख भोगने पड़े । तुझे बड़े ही कठिन ( जन्म - मरणरुपी ) असहनीय दुःख मिले । सुखका तो स्वप्नमें भी लेश नहीं रहा । जिस मार्गमें अनेक संसारी कष्ट और शोक भरे पड़े हैं, तू उसीपर हठपूर्वक बार - बार चलता रहा । अनेक योनियोंमें भटका, बूढ़ा हुआ, विपत्तियाँ सहीं, ( मर गया ) । पर, अरे मूर्ख ! तूने इतनेपर भी श्रीहरिको नहीं पहचाना ! अरे मूढ़ ! विचारकर देख, श्रीरामजीको छोड़कर ( किसीने ) क्या कहीं शान्त प्राप्त की है ?

[ २ ]

हे जीव ! तेरा निवास तो आनन्दसागरमें है, अर्थात् तू आनन्दस्वरुप ही है, तो भी तू उसे भुलाकर क्यों प्यासा मर रहा है ? तू ( विषय - भोगरुपी ) मृगजलको सच्चा जानकर उसीमें सुख समझकर मग्न हो रहा है । उसीमें डूबकर नहा रहा है और उसीको पी रहा हैं; परन्तु उस ( विषय - भोगरुपी ) मृगतृष्णाके जलमें तो ( सुखरुपी ) सच्चा जल तीन कालमें भी नहीं हैं । अरे दुष्ट ! तू अपने सहज अनुभव - रुपको भूलकर आज यहाँ आ पड़ा है । तूने अपने उस विशुद्ध, अविनाशी और विकाररहित परम सुखस्वरुपको छोड़ दिया है और व्यर्थ ही ( उसी प्रकार दुःखी हो रहा है ) जैसे कोई राजा सपनेमें राज छोड़कर कैदखानेमें पड़ जाता है व्यर्थ ही दुःखी होता है अर्थात् सपनेमें भी राजा राजा ही है, परन्तु मोहवश अपने संकल्पसे राज्यसे वंचित होकर कारागारमें पड़ जाता है और जबतक जागता नहीं, तबतक व्यर्थ ही दुःख भोगता है । इसी प्रकार जीव भी सच्चिदानन्दस्वरुपको भ्रमवश भूलकर जगतमें अपनेको मायासे बँधामान लेता है और दुःखी होता है ।

[ ३ ]

तूने स्वयं ही ( अज्ञानसे ) अपनी कर्मरुपी रस्सी मजबूत कर ली, और अपने ही हाथोंसे उसमें ( अविद्याकी ) पक्की गाँठ भी लगा दी । इसीसे हे अभागे ! तू परतन्त्र पड़ा हुआ है । और इसीका फल आगे गर्भमें रहनेका दुःख होगा । संसारमें जो अनेक क्लेशोंके समूह हैं उन्हें वही जानता है जो माताके पेटमें पड़ा है । गर्भमें सिर तो नीचे और पैर ऊपर रहते हैं । इस भयानक संकटके समय कोई बात भी नहीं पूछता । रक्त, मल, मूत्र, विष्ठा, कीड़े और कीचसे घिरा हुआ ( गर्भमें ) सोता है । कोमल शरीरमें जब बड़ी भारी वेदना होती है, तब सिर धुन - धुनकर रोता है । 

[ ४ ]

इस प्रकार जहाँ तुझे तेरे कर्मजालने घेर लिया था ( और उसके कारण तू दुःख पाता था ) श्रीहरिने वहाँ भी तेरा साथ नहीं छोड़ा । ( गर्भमें ) प्रभुने नाना प्रकारसे तेरा पालन - पोषण किया, और फिर परम कृपालु स्वामीने तुझे वहीं ज्ञान भी दिया । जब तूझे हरिने ज्ञान - विवेक दिया, तब तुझे अपने अनेक जन्मोंकी बातें याद आयीं और तू कहने लगा - ' जिसकी यह त्रिगुणमयी माया अति दुस्तर हैं, मैं उसी परमेश्वरकी शरण हूँ । जिस मायाने जीवसमूहको अपने वशमें करके उनके जीवनको नीरस अर्थात् आनन्दरहित कर दिया और जो प्रतिदिन अत्यन्त नयी बनी रहती है, ( ऐसी मायारुपी ) जिस लक्ष्मीके पतिने गर्भकालकी इस विपत्तिमें मुझे ऐसी विवेक - बुद्धि दी है वही मेरी इससे तुरंत रक्षा करें ।'

[ ५ ]

फिर तू ( पूर्व - जन्मोंमें भजन न करनेके लिये ) अपने मनमें बहुत भाँतिसे ग्लानि मानकर कहने लगा कि अबकी बार ( संसारमें ) जन्म लेकर तो चक्रधारी भगवानका भजन ही करुँगा । ऐसा विचारकर ज्यों ही चुप हुआ कि प्रसवकालके पवनने तुझ अपराधीको प्रेरित किया, उस अति प्रचण्ड वायुके द्वारा प्रेरित होकर तूने ( जन्मके समय ) नाना प्रकारके कष्टोंको सहा । उस समय उस भयानक कष्टकी आगमें तेरा ज्ञान, ध्यान, वैराग्य और अनुभव सभी कुछ जल गया, अर्थात् मारे कष्टके तू सब भूल गया । अत्यन्त कष्टके कारण तू व्याकुल हो गया और थोड़ा बल होनेसे एक क्षण भी तुझसे बोला नहीं गया । उस समयके तेरे दारुण दुःखको किसीने न जाना, उलटे सब लोग ( पुत्र होनेके आनन्दमें ) हर्षित होकर गाने लगे ।

[ ६ ]

फिर बचपनमें तूने जितने महान् कष्ट पाये, वे इतने अधिक हैं कि उनकी गणना करना असम्भव है । भूख, रोग और अनेक बड़ी - बड़ी बाधाओंने तुझे घेर लिया, पर तेरी माँको तेरे इन सब कष्टोंका यथार्थ पता नहीं लगा । माँ यह नहीं जानती कि बच्चा किसलिये रो रहा है, इससे वह बार - बार ऐसे ही उपाय करती हैं, जिससे तेरी छाती और भी अधिक जले । ( जैसे अजीर्णके कारण पेट दुखनेसे बच्चा रोता है, पर माता उसे भूखा समझकर और खिलाती है, जिससे उसकी बीमारी बढ़ जाती है । ) शिशु, कुमार और किशोरावस्थामें तू जो अपार पाप करता है, उसका वर्णन कौन करे ? अरे निर्दय ! महादुष्ट ! तुझे छोड़कर और कौन ऐसा है जो इन्हें सह सकेगा ?

[ ७ ]

जवानीमें तू युवती स्त्रीकी आसक्तिमें फँसा, तब तो महान् अज्ञान और मदमें मतवाला हो गया । उस जवानीके नशेमें तूने धर्मकी मर्यादा छोड़ दी और पहले ( गर्भमें और लड़कपनमें ) जो कष्ट हुए थे, उन सबको भुला दिया ( और पाप करने लगा ) । पिछले कष्टसमूहोंको भूल गया । ( अब पाप करनेसे ) आगे तुझे जो संकट प्राप्त होंगे, अरे, उनपर विचार करके तेरी छाती नहीं फट जाती ? जिससे फिर गर्भके गड्ढेमें गिरना पड़े, संसार - चक्रमें आना पड़े, तूने बारंबार वैसे ही कर्म किये । जिस शरीरका परिणाम ( मरनेपर ) कीड़ा, राख या विष्ठा होगा, ( कब्रमें गाड़नेसे सड़कर कीड़ोंके रुपमें बदल जायगा, जलानेपर राख हो जायगा या जीव - जन्तु खा डालेंगे तो उनकी विष्ठा बन जायगा ) उसीके लिये तू सारे संसारका शत्रु बन बैठा । परायी स्त्री और पराये धन ( पर प्रीति और दूसरोंसे द्रोह, यही संसारमें नित्य नया बढ़ता गया ।

[ ८ ]

देखते - ही - देखते बुढ़ापा आ पहुँचा, जिसे तूने स्वप्नमें भी नहीं बुलाया था; उस बुढ़ापेका हाल कहा नहीं जाता । उसे अब अपने शरीरमें प्रत्यक्ष देख ले, शरीर जर्जर हो गया है; बुढ़ापेके कारण रोग और शूल सता रहे हैं, सिर हिल रहा है, इन्द्रियोंकी शक्ति नष्ट हो गयी है । तेरा बोलना किसीको अच्छा नहीं लगता, घरकी रखवाली करनेवाला कुत्ता भी तेरा निरादर करता है अथवा कुत्तेसे भी बढ़कर तेरा निरादार होने लगा है । ( कुत्तेको दूरसे रोटी फेंकते हैं, पर उसे समयपर तो दे देते हैं, तेरी उतनी भी सँभाल नहीं ) अधिक क्या तू खाने - पीनेतकको नहीं पाता । बुढ़ापेमें ऐसी दुर्दशा होनेपर तुझे वैराग्य नहीं होता ? इस दशामें भी तू तृष्णाकी तरंगोंको बढ़ाता ही जाता है ।

[ ९ ]

ये तो तेरे एक जन्मके कुछ थोड़े - से कष्ट गिनाये गये हैं, ऐसे अनेक बड़े - बड़े जन्मोंकी सबकी कथा तो कौन कह सकता है ? सदा चार खानों ( पिण्डज, अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज ) में घूमना पड़ता है । अब भी तू मनमें विचार नहीं करता ! अब भी विचारकर अज्ञानको छोड़ दे और भक्तोंके सुख देनेवाले भगवान् श्रीरामजीका भजन कर । वे दुस्तर भव - सागरके लिये जहाजरुप हैं, तू उन सुदर्शनचक्र धारण करनेवाले देवपति भगवानका भजन कर । वे बिना ही हेतु दया करनेवाले हैं, बड़े ही उदार हैं और इस अपार मायासे तारनेवाले हैं । वे मोक्षके, संसारके, लक्ष्मीके और इन प्राणोंके नाथ हैं एवं मुक्तिमे कारण हैं ।

[ १० ]

श्रीरघुनाथजीकी भक्ति सुलभ और सुखदायिनी है । वह संसारके तीनों ताप, शोक और भयको हरनेवाली है । किन्तु वह भक्ति सत्संगके बिना प्राप्त नहीं होती; और संत तभी मिलते हैं जब रघुनाथजी कृपा करते हैं । जब दीनदयालु रघुनाथजी कृपा करते हैं तब संतसमागम होता है । जिन संतोंके दर्शन, स्पर्श और सत्संगसे पाप - समूह समूल नष्ट हो जाते हैं, जिनके मिलनेसे सुख - दुःखमें समबुद्धि हो जाती हैं, अमानिता आदि अनेक सदगुण प्रकट हो जाते हैं तथा भलीभाँति परमात्माका बोध हो जानेके कारण मद, मोह, लोभ, शोक, क्रोध आदि सहज ही दूर हो जाते हैं ।

[ ११ ]

ऐसे साधुओंका सेवन करनेसे द्वैतका भय भाग जाता है, ( सर्वत्र परमात्म - बुद्धि हो जानेसे वह निर्भय हो जाता है ) श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें ध्यान लग जाता है । शरीरसे उत्पन्न हुए सब विकार छूट जाते हैं, और तब अपने स्वरुपमें - आत्मस्वरुपमें प्रेत होता है । जिसका अपने स्वरुपमें अनुराग हो जाता है, अर्थात् जो आत्मस्वरुपको प्राप्त हो जाता है उसकी दशा संसारमें कुछ विलक्षण ही हो जाती है । सन्तोष, समता, शान्ति और मन - इन्द्रियोंका निग्रह उसके स्वाभाविक हो जाते हैं, फिर वह अपनेको देहधारी नहीं मानता अर्थात् उसका देहात्म - बोध चला जाता है । वह विशुद्ध संसार - रोग - रहित और एकरस ( परमात्मस्वरुपमें नित्य स्थित ) हो जाता है । फिर उसे हर्ष - शोक नहीं व्यापता । जिसकी ऐसी नित्य - स्थिति हो गयी वह तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाला होता है ।

[ १२ ]

जो मनुष्य इस मार्गपर मन लगाकर चलता है, भगवान् उसकी सहायता क्यों न करेंगे ? यह जो मार्ग वेद और संतोंने दिखा दिया है, उसपर चलनेसे सभी प्रकारके सुखोंकी प्राप्ति होगी । इस मार्गपर चलनेवाला साधक संसारिक ( विषयोंसे सुखकी ) आशाको त्यागकर भगवत्कृपासे नित्य ( अद्वैत ब्रह्मके ) सुखको प्राप्त करता है । यों तो करोड़ों, बाते हैं, उन्हें कौन कहता फिरे ? परन्तु जहाँतक द्वैत दिखलायी भी देता है वहाँतक सपनेमें बी सच्चा सुख नहीं मिल सकता, ( सच्चा सुख अद्वैत - ब्रह्मस्वरुपमें स्थित होनेमें ही है, इसीको संसार - सागरसे पार होना कहते हैं ) परन्तु ब्राह्मण, देवता, गुरु, हरि और संतों ( की कृपा ) के बिना कोई संसार - सागरका पार नहीं पा सकता, यह समझकर तुलसीदास भी ( संसारके ) भयको दूर करनेवाले लक्ष्मीपति भगवानके गुण गाता है ।

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Last Updated : March 22, 2010

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