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विनयावली ७५

विनय पत्रिका - विनयावली ७५

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


कृपासिंधु ! जन दीन दुवारे दादि न पावत काहे ।

जब जहँ तुमहिं पुकारत आरत, तहँ तिन्हके दुख दाहे ॥१॥

गज, प्रहलाद, पांडुसुत, कपि सबको रिपु - संकट मेट्यो ।

प्रनत, बंधु - भय - बिक, बिभीषन, उठि सो भरत ज्यों भेट्यो ॥२॥

मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने बसावों ।

भजन, बिबेक, बिराग, लोग भले, मैं क्रम - क्रम करि ल्यावों ॥३॥

सुनि रिस भरे कुटिल कामादिक, करहिं जोर बरिआईं ।

तिन्हहिं उजारि नारि - अरि - धन पुर राखहिं राम गुसाईं ॥४॥

सम - सेवा - छल - दान - दंड हौं, रचि उपाय पचि हार्यो ।

बिनु कारनको कलह बड़ो दुख, प्रभुसों प्रगटि पुकार्यो ॥५॥

सुर स्वारथी, अनीस, अलायक, निठुर, दया चित नाहीं ।

जाउँ कहाँ, को बिपति - निवारक, भवतारक जग माहीं ॥६॥

तुलसी जदपि पोच, तउ तुम्हरो, और न काहू केरो ।

दीजै भगति - बाँह बारक, ज्यों सुबस बसै अब खेरो ॥७॥

भावार्थः- हे कृपासागर ! यह तुम्हारा दीन जन तुम्हारे द्वारपर सहायता क्यों नहीं पाता ? जब, जहाँपर, दुःखियोने तुम्हें पुकारा, तब वहींपर तुमने उनके दुःख दूर कर दिये ॥१॥

गजराज, प्रह्लाद, पाण्डव, सुग्रीव आदि सबके शत्रुओंसे दिये गये कष्ट तुमने दूर कर दिये । भाई रावणके डरसे व्याकुल शरणागत विभीषणको उठाकर तुमने भरतकी नाईं हदयसे लगा लिया ( फिर मेरे लिये ही ऐसा क्यों नहीं होता ) ॥२॥

मैं तुम्हारा नाम लेकर अपने हदयमें एक गाँव बसाना चाहता हूँ और उसमें बसानेके लिये मैं धीरे - धीरे भजन, विवेक, वैराग्य आदि सज्जनोंको इधर - उधरसे लाता हूँ ॥३॥

पर यह सुनकर क्रोधित हो दुष्ट काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि जबरदस्ती करते हैं और उन बेचारे भजन आदि भले आदमियोंको निकाल - निकालकर, हे प्रभो ! उस गाँवमें दुष्ट स्त्री, शत्रु और धन आदि नीचोंको ला - लाकर बसाते हैं ॥४॥

साम, दाम, दण्ड, भेद और सेवा - टहल करके तथा और अनेक उपाय करके मैं थक गया हूँ, तब हे प्रभो ! इस बिना ही कारणकी लड़ाईके इस महान् दुःखको आज मैंने तुम्हारे सामने खुलकर निवेदन कर दिया है ॥५॥

( तुम्हारे सिवा यह दुःख और सुनाता भी किसे, क्योंकि ) देवता तो स्वार्थी, असमर्थ, अयोग्य और निष्ठुर हैं । उनके चित्तमें तो दया नहीं है । मैं कहाँ जाऊँ ? ( तुम्हारे सिवा ) कौन विपत्ति दूर करनेवाला है ? कौन इस संसार - सागरसे पार उतारनेवाला हैं ? ॥६॥

तुलसी यद्यपि नीच है, पर है तो तुम्हारा ही, और किसीका गुलाम तो नहीं है । अपना जानकर एक बार भक्तिरुपी बाँह दे दो; जिससे यह ( तुम्हारे नामका ) गाँव अच्छी तरह आबाद हो जाय । अर्थात् हदयमें तुम्हारी भक्तिके प्रतापसे भजन, ज्ञन, वैराग्यका विकार होकर काम - क्रोधादिका नाश हो जाय ॥७॥

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Last Updated : March 24, 2010

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