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विनयावली १६४

विनय पत्रिका - विनयावली १६४

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


ऐसेहि जनम - समूह सिराने ।

प्राननाथ रघुनाथ - से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने ॥१॥

जे जड़ जीव कुटिल , कायर , खल , केवल कलिमल - साने ।

सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ , हरितें अधिक करि माने ॥२॥

सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने ।

सदा मलीन पंथके जल ज्यों , कबहुँ न हदय थिराने ॥३॥

यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने ।

तुलसी चित - चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने ॥४॥

भावार्थः - इसी प्रकार अनेक जन्म ( व्यर्थ ) बीत गये । प्राणनाथ रघुनाथजी - सरीखे स्वामीको छोड़कर दूसरोंके चरणोंकी सेवा करता रहा ! ॥१॥

जो मूर्ख जीव कुटिल , कायर और दुष्ट है९ तथा जो केवल कलिके पापोंसे सने हुए हैं , उनकी प्रशंसा करते - करते मुँह सूख गया है और उनको भगवानसे भे अधिक समझ रखा है ॥२॥

सुखके लिये निरन्तर करोड़ों उपाय करते - करते कभी पैर नहीं दुखे ( दिन - रात विषय - भोगोंके सुखोंमें इधर - उधर भटकता फिरा ) । हदय रास्तेके जलकी भाँति सदा मैला ही बना रहा , कभी निर्मल अथवा स्थिर नहीं हुआ ॥३॥

इस दीनताको दूर करनेके लिये अगणित उपाय मनमें सोचे , पर हे तुलसी ! चिन्तामणि ( श्रीरघुनाथजी ) - को पहचाने बिना चित्तकी चिन्ता नहीं मिट सकती ( परमात्माका और उनकी सुहदताका ज्ञान होनेसे ही चिन्ताओंका नाश होगा ) ॥४॥

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Last Updated : November 13, 2010

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