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विनयावली ३०

विनय पत्रिका - विनयावली ३०

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


सुनि सीतापति - सील - सुभाउ ।

मोद न मन, तन पुलक, नयन जल, सो नर खेहर खाउ ॥१॥

सिसुपनतें पितु, मातु, बंधु, गुरु, सेवक, सचिव, सखाउ ।

कहत राम - बिधु - बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ॥२॥

खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ ।

जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ ॥३॥

सिला साप - संताप - बिगत भइ परसत पावन पाउ ।

दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ ॥४॥

भव - धनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गये ताउ ।

छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ ॥५॥

कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ ।

ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों निज तन मरम कुघाउ ॥६॥

कपि - सेवा - बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ ।

देबेको न कछू रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ ॥७॥

अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल - छाउ ।

भरत सभा सनमानि, सराहत, होत न हदय अघाउ ॥८॥

निज करुना करतूति भगतपर चपत चलत चरचाउ ।

सकृत प्रनाम जस बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ ॥९॥

समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ ।

तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम - पसाउ ॥१०॥

भावार्थः- श्रीसीतानाथ रामजीका शील - स्वभाव सुनकर जिसके मनमें आनन्द नहीं होता, जिसका शरीर पुलकायमान नहीं होता, जिसके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू नहीं भर आते, वह दुष्ट धूल फाँकता फिरे तो भी ठीक है ॥१॥

बचपनसे ही पिता, माता, भाई, गुरु, नौकर, मन्त्री, और मित्र यही कहते हैंख कि हममेंसे किसीने स्वप्नमें भी श्रीरामचन्द्रजीके चन्द्र - मुखपर कभी क्रोध नहीं देखा ॥२॥

उनके साथ जो उनके तीनों भाई और नगरके दूसरे बालक खेलते थे, उनकी अनीति और हानिको वे सदा देखते रहते थे और अपनी जीतमें भी ( उनको प्रसन्न करनेके लिये ) हार मान लेते थे तथा उन लोगोंको पुचकार - पुचकारकर प्रेमसे अपना दाँव देते और दूसरोंमें दिलाते थे ॥३॥

चरणका स्पर्श होते ही पत्थरकी शिला अहल्या शापके सन्तापसे छूट गयी, उसे सदगति दे दी; पर इस बातका तो उनके मनमें कुछ भी हर्ष नहीं हुआ, उलटे इस बातका पश्चात्ताप अवश्य हुआ कि ऋषिपत्नीके मेरे चरण क्यों लग गये ? ॥४॥

शिवजीका धनुष तोड़कर राजाओंका मान हर लिया, इससे जब परशुरामजीने आकर क्रोध किया, बत उनका अपराध क्षमा करके उलटे श्रीलक्ष्मणजीसे माफी मँगवायी और स्वयं उनके चरणोंपर गिर पड़े, इतनी सहिष्णुता और कही नहीं है ! ॥५॥

राजा दशरथने राज्य देनेको कहकर, कैकेयीके वशमें होनेके कारण, वनवास दे दिया और इसी ग्लानिके मारे वे मर भी गये । ऐसी बुरी माता कैकेयीका मन भी आप ऐसे सँभाले रहे, जैसे कोई अपने शरीरके मर्मस्थानके घवको देखता रहता है, अर्थात् आप सदा उसके मनके अनुसार ही चलते रहे ॥६॥

जब आप हनुमानजीकी सेवाके वश होकर उनके उपकृत हो गये, तब उनसे कहा कि ' हे पवनसुत ! यहाँ आ, तुझे देनेको तो मेरे पास कुछ भी नहीं है । मैं तेरा ऋणी हूँ, तू मेरा महाजन है, तू चाहे तो मुझसे लिखा - पढ़ी करवाले ' ॥७॥

सुग्रीव और विभीषणने अपना कपट - भाव नहीं छोड़ा, परन्तु आपने तो उन्हें अपना ही लिया । भरजीका तो सदा भरी सभामें आप सम्मान करते रहते हैं, उनकी प्रशंसा करते - करते तो आपके हदयमें तृप्ति ही नहीं होती ॥८॥

भक्तोंपर आपने जो - जो दया और उपकार किये हैं, उनकी तो चर्चा चलते ही आप लज्जासे मानो गड़ जाते हैं ( अपनी प्रशंसा आपको सुहाती ही नहीं ) ; पर जो एक बार भी आपको प्रणाम करता है और शरणमें आ जाता है, आप सदा उसका यश वर्णन करते हैं, सुनते हैं और कह - कहकर दूसरोंमें गान करवाते हैं ॥९॥

ऐसे कोमलहदय श्रीरामजीके गुण - समूहोंको समझ - समझकर मेरे हदयमें प्रेमकी बाढ़ आ गयी है, हे तुलसीदास ! इस प्रेमाननन्दके कारण तू अनायास ही श्रीरामके चरणकमलोंको प्राप्त करेगा ॥१०॥

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Last Updated : September 11, 2009

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