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विनयावली १५०

विनय पत्रिका - विनयावली १५०

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


करिय सँभार , कोसलराय !

और ठौर न और गति , अवलंब नाम बिहाय ॥१॥

बूझि अपनी आपनो हितु आप बाप न माय ।

राम ! राउर नाम गुर , सुर , स्वामि , सखा , सहाय ॥२॥

रामराज न चले मानस - मलिनके छल छाय ।

कोप तेहि कलिकाल कायर मुएहि घालत घाय ॥३॥

लेत केहरिको बयर ज्यों भेक हनि गोमाय ।

त्योंहि राम - गुलाम जानि निकाम देत कुदाय ॥४॥

अकनि याके कपट - करतब , अमित अनय - अपाय ।

सुखी हरिपुर बसत होत परीछितहि पछिताय ॥५॥

कृपासिंधु ! बिलोकिये , जन - मनकी साँसति साय ।

सरन आयो , देव ! दीनदयालु ! देखन पाय ॥६॥

निकट बोलि न बरजिये , बलि जाउँ , हनिय न हाय ।

देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनिके न्याय ॥७॥

अरुन मुख , भ्रू बिकट , पिंगल नयन रोष - कषाय ।

बीर सुमिरि समीरको घटिहै चपल चित चाय ॥८॥

बिनय सुनि बिहँसे अनुजसों बचनके कहि भाय ।

' भली कही ' कह्यो लषन हूँ हँसि , बने सकल बनाय ॥९॥

दई दीनहिं दादि , सो सुनि सुजन - सदन बधाय ।

मिटे संकट - सोच , पोच - प्रपंच , पाप - निकाय ॥१०॥

पेखि प्रीति - प्रतीति जनपर अगुन अनघ अमाय ।

दासतुलसी कहत मुनिगन , ' जयति जय उरुगाय ' ॥११॥

भावार्थः - हे कोसलराज ! मेरी रक्षा कीजिये । आपके नामको छोड़कर मुझे न तो कहीं और ठौर - ठिकाना है , और न किसीका सहारा ही है ( मेरी तो बस , आपके नामतक ही दौड़ है ) ॥१॥

आप स्वयं समझ - बूझकर अपने सेवकोंका ऐसा कल्याण कर देते हैं , जैसा ( सगे ) माता - पिता भी नहीं करते ( माता - पिता भी मोक्षसुख नहीं दे सकते । ) हे श्रीरामजी ! आपका नाम ही मेरा गुरु , देवता , स्वामी , मित्र और सहायक है ॥२॥

हे नाथ ! आपके ' रामराज्य ' में मलिन मनवाले ( कलिकाल ) - के कपटकी छाया भी नहीं पड़ सकती ; किन्तु यह कायर कलिकाल उसी क्रोधके कारण मुझ मरे हुएको भी अपनी चोटोंसे घायल कर रहा है । ( इसे इतना भी तो इसका जोर चलता नहीं , मुझ - सरीखे क्षुद्र दासको सता रहा है ) ॥४॥

भगवानके परमधाममें आनन्दपूर्वक निवास करनेवाले महाराज परीक्षितके मनमें भी इसकी कपटभरी करतूतों , असंख्य अनीतियों और ( साधुओंके मार्गमें डाले गये ) अनेक विघ्न - बाधाओंको सुनकर पछतावा हो रहा है ( इसलिये कि इसे पकड़कर हमने क्यों जीता छोड़ दिया ? ) ॥५॥

हे कृपासागर ! तनिक कृपादृष्टि कीजिये , जिससे इस दासके मनकी पीड़ा शान्त हो जाय । हे दीनदयालो ! हे देव ! मैं आपके चरणोंका दर्शन करनेके लिये आपकी शरण आया हूँ ॥६॥

यदि आप ( दयावश ) उस ( कलियुग ) - को पास बुलाकर रोकना नहीं चाहते , या उसकी ' हाय - हाय ' की पुकार सुनकर उसे मारना नहीं चाहते , तो मैं आपकी बलैया लेता हूँ ( आप तनिक हनुमानजीको ही संकेत कर दीजिये , आपका इशारा पाकर ) वे इसकी ओर वैसे ही देखेंगे , जैसे सिंह गायके मुखकी ओर देखता है ॥७॥

( इस प्रकार कलियुगकी कुटिल करनीके कारण ) जब हनुमानजी लाल मूँह , टेढ़ी भौंहें और पीली आँखोंको क्रोधसे लाल कर लेंगे , तब पवनकुमार वीरवर हनुमानजीका स्मरण कर इस चंचल चित्तवाले ( कलि ) - का सारा चाव चम्पत हो जायगा ( वह अपनी सारी शक्ति भूल जायगा ) ॥८॥

मेरी यह विनती सुनकर श्रीरघुनाथजी मुसकराये और अपने छोटे भाई लक्ष्मणको इन बातोंका तात्पर्य समझाये ( कि देखो , तुलसी कैसा चतुर है ! ) लक्ष्मणजीने हँसकर कहा कि ठीक ही तो कहता है । बस , इस प्रकार मेरी सारी बात बन गयी ॥९॥

भगवान श्रीरामचन्द्रजीने इस गरीबका न्याय कर दिया । यह सुनकर संतोंके घर बधाई बजने लगी । दुःख चिन्ता , छल - कपट और पापके समूह सब नष्ट हो गये ॥१०॥

निर्गुण ( श्रीरामजीकी ) अपने दासपर ऐसी अलौकिक ( त्रिगुणमयी लौकिक प्रीति नहीं ) पवित्र और मायारहित प्रेम और विश्वास देखकर , हे तुलसीदास ! मुनिलोग कहने लगे कि ' विपुल कीर्तिवाले भगवानकी जय हो , जय हो ॥११॥

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Last Updated : November 13, 2010

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