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विनयावली १३

विनय पत्रिका - विनयावली १३

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


राग जैतश्री

कछु ह्वै न आई गयो जनम जाय ।

अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे न राम मन बचन - काय ॥१॥

लरिकाईं बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय ।

जोबन - जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन बाय ॥२॥

मध्य बयस धन हेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय ।

राम - बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय ॥३॥

सेये नहिं सीतापति - सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय ।

सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय ॥४॥

अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यों, बिकल अंग दले जरा धाय ।

सिर धुनि - धुनि पछितात मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय ॥५॥

जिन्ह लगि निज परलोक बिगार्ट्यो, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय ।

तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं, तर्ट्यों गयँद जाके एक नाँय ॥६॥

भावार्थः-- हाय ! मुझसे कुछ भी नहीं बन पड़ा और जन्म यों ही बीत गया । बड़े दुर्लभ मनुष्य - शरीरको पाकर निष्कपट - भावसे तन - मन - वचनसे कभी श्रीरामका भजन नहीं किया ॥१॥

लड़कपन तो अज्ञानमें बीता, उस समय चित्तमें चौगुनी चंचलता और ( खेलने - खानेकी ) प्रसन्नता थी । जवानीरुपी ज्वर चढ़नेपर स्त्रीरुपी कुपथ्य कर लिया, जिससे सारे शरीरमें कामरुपी वायु भरकर सन्निपात हो गया ॥२॥

( जवानी ढलनेपर ) बीचकी अवस्था खेती, व्यापार और अनेक उपायोंसे धन कमानेंमें खोयी; परंन्तु श्रीरामसे विमुख होनेके कारण कभी स्वप्नमें भी सुख नहीं मिला, दिन - रात संसारके तीनों तापोंसे जलता ही रहा ॥३॥

न तो कभी श्रीरामचन्द्रजीके भक्तोंकी और शुद्ध बुद्धिवाले संतोंकी ही भक्तिभावसे भलीभाँति सेवा की और न श्रीरघुनाथजीने जो लीलाएँ की थीं, उन्हें ही रोमांचित होकर सुना या प्रसन्न मनसे कहा ॥४॥

अब जब कि बुढ़ापेने आकर सारे अंगोंको व्याकुल कर तोड़ दिया है, तब मणिहीन साँपके समान चिन्ता करता हूँ, सिर धुन - धुनकर और हाथ मलमलकर पछताता हूँ, पर इस समय इस दुःसह दावानलको बुझानेके लिये कोई भी हितकारी मित्र दृष्टि नहीं पड़ता ॥५॥

जिनके लिये ( अनेक पाप कमाकर ) लोक - परलोक बिगाड़ दिया था; वे आज पास खड़े होनेमें भी शर्माते हैं । हे तुलसी ! तू अब भी उन श्रीरघुनाथजीका स्मरण कर, जिनका एक बार नाम लेनेसे ही गजराज ( संसार - सागरसे ) तर गया था ॥६॥

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Last Updated : September 05, 2009

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