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प्रियतम ! न छिप सकोगे , ...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार - प्रियतम ! न छिप सकोगे , ...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारके परमोपयोगी सरस पदोंसे की गयी भक्ति भगवान को परम प्रिय है।

प्रियतम ! न छिप सकोगे, चाहे जो वेश धर लो ।

अब हो चुकी ह, मुझको, पहचान वह तुम्हारी ॥

ढूँढ़ा तुम्हे अभीतक, मंदिर जा मस्जिदोमें ।

पर देख तौ न पाया वह माधुरी पियारी ॥

जिसने बताया जैसे, वैसे ही ढूँढा मैने ।

भटका, कहीं न दीखे, चैतन्य ! चित्तहारी ॥

बस, बेतरह हराया, आया जो पास मेरे ।

तुमको, बता-बताकर, शब्दोंकी मार मारी ॥

पर देखकर न तुमको, था सोचता यों मनमें ।

है वा नहीं है जगमें सत्ता कही तुम्हारी ॥

संदेह जब यों होता, झाँकी-सी मार जाते ।

तिरछी नजरसे हँसकर, छिपते तुरत बिहारी ॥

बिजली-सी दौड जाती, सन-सन शरीर करता ।

होती थी इन्द्रियाँ सब प्रखर प्रकाशकारी ॥

तब दीखता था मुझको, फैला प्रकाश सबमें ।

प्राणेश ! बस, तुम्हारा, वह दिव्य मोदकारी ॥

आँधी-सी एक आती, धन कीर्ति-कामिनीकी ।

सारा प्रकाश ढकता, उस तमसे अंधकारी ॥

आ-आके इस तरह तुम, यों बार-बार जाते ।

मुझको न थी तुम्हारी पहचा पुण्यकारी ॥

आँखोंमें बैठ करके तुम देखते हो सबको ।

कानोमें बैठ सुनते तुम शब्द सौख्यकारी ॥

नाकोंसे गंध लेते रसनासे चाखते तुम ।

हो स्पर्श तुम ही करते, लीला विचित्रकारी ॥

प्राणोमें, चित्त-मनमें मतिमें, अहंमे, तूमे ।

सबमें पसार करके तुम खेलते खिलारी ॥

बेढब नकाबपोशी रक्खी है सीख तुमने ।

अंदर समाके सबके छिपते, अजीब यारी ॥

जिसको दिखाया तुमने परदा हटाके अपना ।

वह रूप-रंग अनोखा, प्रेमोन्मत्तकारी ॥

पिर भूलता नही वह, औ भूल भी न सकता ।

पहचान नित्य होती पारस्परिक तुम्हारी ॥

आँधी कभी न आती, आँखे न चौधियाती ।

वह दिव्य दृष्टि पाकर होता सदा सुखारी ॥

सुख-दुःख जय-पराजय, तम-तेज, यश-अयशमें ।

दिखती उसे सभीमें छबि मोहिनी तुम्हारी ॥

फिर देखता वह तुमसे सारा जगत भरा है ।

अपनी जरा-सी सत्ता वह देखता न न्यारी ॥

तुम हो समाये सबमे, वह है समाया तुममे ।

भय-भेद-भ्रांति मिटती उस एक छनमें सारी ॥

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Last Updated : September 25, 2008

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