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हे स्वामी ! अनन्य अवलम्ब...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार - हे स्वामी ! अनन्य अवलम्ब...

श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दारके परमोपयोगी सरस पदोंसे की गयी भक्ति भगवान को परम प्रिय है।

हे स्वामी ! अनन्य अवलम्बन, हे मेरे जीवन-आधार !

तेरी दया अहैतुक पर निर्भर कर आन पड़ा हूँ द्वार ॥

जाऊँ कहाँ जगतमें तेरे सिवा न शरणद है कोई ।

भटका, परख चुका सबको, कुछ मिला न, अपनी पत खोई ॥

रखना दूर, किसीने मुझसे अपनी नजर नही जोडी ।

अति हित किया सत्य समझाया, सब मिथ्या प्रतीति तोड़ी ॥

हुआ निराश, उदास गया विश्वास जगतके भोगोंका ।

जिनके लिये खो दिया जीवन, पता लगा उन लोगोंका ॥

अब तो नही दीखता मुझको तेरे सिवा सहारा और ।

जल-जहाजका कौआ जैसे पाता नही दूसरी ठौर ॥

करुणाकर ! करुना कर सत्वर अब तो दे मन्दिर-पट खोल ॥

बाँकी झाँकी नाथ ! दिखाकर तनिक सुना दे मीठे बोल ॥

गूँज उठे प्रत्येक रोममें परम मधुर वह दिव्य स्वर ।

ह्रत्‌-तंत्री बज उठे साथ ही मिला उसीमें अपना सुर ॥

तन पुलकित हो, सु-मन जलजकी खिल जायें सारी कलियाँ ।

चरण मृदुल बन मधुप उसीमें करते रहे रंगरलियाँ ॥

हो जाऊँ उन्मत, भूल जाऊँ तन मनकी सुधि सारी ।

देखूँ फिर कण-कणमें तेरी छबि नव नीरद-घन प्यारी ॥

हे स्वामिन्‍ ! तेरा सेवक बन तेरे बल होऊँ बलवान ।

पाप-ताप छिप जायें हो भयभीत मुझे तेरा जन जान ॥

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Last Updated : May 24, 2008

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