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श्रीअन्तरिक्ष उवाच - ...

जानकी द्वादशनाम स्तोत्र - श्रीअन्तरिक्ष उवाच - ...

स्तोत्र (Stotra) का अर्थ है देवताओं की स्तुति में लिखे गए भजन या प्रार्थनाएँ।


श्रीअन्तरिक्ष उवाच -

मैथिली जानकी सीता वैदेही जनकात्मजा ।

कृपापीयूषजलधिः प्रियार्हा रामवल्लभा ॥३॥

श्रीअन्तरिक्ष-योगेश्वरजी महाराज बोले -

१ मैथिली – श्रीमिथिवंश में सर्वोत्कृष्ट रूपसे विराजनेवाली श्रीसीरध्वजराजदुलारीजी ।

२ जानकी  - श्रीजनकजी महाराज के भाव की पूर्ति के लिये उनकी यज्ञवेदी से प्रकट होनेवाली ।

३ सीता -  आश्रितों के हृदय से सम्पूर्ण दुःखों की मूल दुर्भावना को नष्ट करके सद्भावना का विस्तार करनेवाली ।

४ वैदेही - भगवान श्रीरामजी के चिन्तन की तल्लीनता से देह की सुधि भूल जानेवाली शक्तियों में सर्वोत्तम ।

५ जनकात्मजा - श्रीसीरध्वज महाराज नाम के श्रीजनकजी महाराज के पुत्रीभाव को स्वीकार करनेवाली ।

६ कृपापीयूषजलधिः – समुद्र के समान अथाह एवं अमृत के सदृश असम्भव को सम्भव कर देनेवाली कृपा से युक्त ।

७ प्रियार्हा - जो प्यारे के योग्य और प्यारे श्रीरामभद्रजी जिनके योग्य हैं ।

८ रामवल्ल्भा -  जो श्रीराघवेन्द्रसरकार की परम प्यारी है ॥२३॥

सुनयनासुता वीर्यशुल्काऽयोनी रसोद्भवा ।

द्वादशैतानि नामानि वाञ्छितार्थप्रदानि हि ॥४॥

९ सुनयनासुता - श्रीसुनयना महारानी के वात्सल्यभाव-जनित सुख का भली भाँति विस्तार करनेवाली ।

१० वीर्यशुल्का - शिवधनुष तोड़ने की शक्तिरूपी न्यौछावर ही वधूरूप में जिनकी प्राप्ति का साधन है अर्थात् जो भगवान् शिवजी के धनुष तोड़ने की शक्तिरूपी न्यौछावर अर्पण कर सकेगा उसी के साथ जिनका विवाह होगा ।

११ अयोनिः - किसी कारण विशेष से प्रकट न होकर केवल भक्तों का भाव पूर्ण करने के लिये अपनी इच्छानुसार प्रकट होनेवाली ।

१२ रसोद्भवा – जन्म से ही अपनी अलौकिकता व्यक्त करने के लिये किसी प्राकृत शरीर से प्रकट न होकर पृथ्वी से प्रकट होनेवाली ।

हे राजन् ! श्रीललीजी के ये बारह नाम मनोवाञ्छित (मनचाही) सिद्धि को प्रदान करनेवाले है । यह सुनकर गद्गद हो श्रीजनकजी महाराज बोले -

श्रीजनक उवाच ।

अहोऽहं परमो धन्यो धन्यधन्यो धरातले ।

सुताभावेन मां नित्यं नन्दयत्यखिलेश्वरी ॥५॥

हे नवो योगेश्वर महाराज ! इस पृथ्वीतल पर मैं धन्यों में भी धन्य , सबसे बढ़कर सौभाग्यशाली हूँ जो ये श्रीसर्वेश्वरीजी पुत्रीभाव से मुझे नित्य आनन्द प्रदान कर रही हैं ॥२५॥

यस्याः सम्बन्धमात्रेण त्रिलोक्यां सर्वभूभृताम् ।

यतीनां योगिवर्याणां सिद्धानां सुमहात्मनाम् ॥६॥

महाभागवतानां च मुनीनां त्रिदिवौकसाम् ।

पूज्यपूज्यप्रपूज्यानां ब्रह्मविष्णुपिनाकिनाम् ॥

सर्वेषां दुर्लभाप्तीनामादरेक्षणभाजनम् ।

अहमस्मि विशेषेण स्वल्पभूमिपतिः पुमान् ॥८॥

मैं छोटा सा मनुष्य राजा , जिनके सम्बन्ध मात्र से ही त्रिलोकी में सभी राजा , यति , योगी , सिद्ध , बड़े-बड़े महात्मा , बड़े-बड़े भक्त , मुनि देवता , पूज्यों के भी पूज्यों के महान् पूजनीय ब्रह्मा विष्णु , महेश आदि कहाँ तक कहें जिनकी प्राप्ति महान् दुर्लभ है उन सभी के आदरदृष्टि का विशेष रूप से मैं पात्र ही रहा हूँ ॥२६-२८॥

इति श्रीजानकीचरितामृत अष्टाशीतितमोऽध्यायान्तर्गतम् श्रीजानकी द्वादशनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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Last Updated : August 14, 2025

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