हिन्दी पदावली - पद १६१ से १७०

संत नामदेवजी मराठी संत होते हुए भी, उन्होंने हिन्दी भाषामें सरल अभंग रचना की ।


१६१
अभिमांन लीषां नर आयौ रे ।
पर आत्म आत्म नहीं चीन्हीं । नर वपु नांव धरायो रे ॥टेक॥
गरभबास मैं हुतौ दीनता । त्राहि त्राहि ल्यौ लायौ रे ।
हा हा करत विसंभर आगै । गहि आपदा छुडावौ रे ॥१॥
अब रातौ तै बिषै बासना । संग तृस्नां कै धायौ रे ।
गुन्हेगार गोबिंद देव कौ । कबहूं राम न गायौ रे ॥२॥
मैं हरि नांम अधार धार कै । साधू सरनि बतायौ रे ।
नांमदेव कहै समझि मन मूरिष । जौ समझै समझायौ रे ॥३॥

१६२
पावघे पावघे सहजै मुरारी ।
सबद अनाहद घंटा बाजै, बमेक विचारी बीठला ॥टेक॥
त्रिवेणी संगम मंजन करिहूं । मनैं बुझाया ।
नैन कुसुम करि चरचौं । चितै चंदन लाया ॥१॥
पाती प्रीति ध्यान ले । धूप दीपक ग्यांना ।
अजपा जपौं अपूज्या पूजौं । अजरामर थाना ॥२॥
जहां कुछ नाहीं तहां कुछ देषा । जीयरा लोभानां ।
आत्म केरे तेज मधे । तेज दीपानां ॥३॥
अनेक सूरज मिलि उदै किये हैं । ऐसी जोति प्रकासी ।
तहा निरंजन अंजन षोलै । वैकुंठ वासी ॥४॥
करम सकल कौ भेष धरयौ है । विषई विकारा ।
चंबर पवन गुन अषित करिहूं । सारंग धारा ॥५॥
बिना विप्र वेद धुनि उचरै । अधिक रसाला ।
बिना तूंबरि नारद नाचै भावै गावै । बाजहिं ताला ॥६॥
रुप अतीत सकल गुण रहता । गगन समाना ।
तहां ते अधिक लौ लागी । अंतरि ध्यानां ॥७॥
विष्णुदास नामईया संगे । भेटीला सोई ।
हरि हरि हरि हरि कीरतल करतां । इहि बिधि आनंद होई ॥८॥

१६३
लटकि न बोलूं बाप वर्तमान गाढौ ।
कोल्हा ऐवडा मोतीडा मैं मैं डोलै देषीला ॥टेक॥
छेली बेली बाघ जैला मांझरीया भै ठाढै ।
उडत पंषि मैं लवरु पेष्या नर लूंजै है हाडै ॥१॥
बावलियाचै पोटै मांषणियाचै पोटै ।
संषै सुनहा मारीला तहाँ मीडक अभिला लोटै ॥२॥
अम्है जगैला ब्राटदेस तहां माझी दूध कैला ।
व्रजै आटै गांझीला जहां चौदह रंजन भरिला ॥३॥
लटक्यौ गईयौ गढीया जौलै गठीया ऐवडै रौलै ।
उंडत पंष मैं मूंगी पेषी वांटी जे है डोलै ॥४॥
विस्नदास नामईयौ यूं प्रणजै ये छै जीव जीव ची उकती ।
लटक्यौ आछै सांगीला । ताछै मोक्ष न मुकती ॥५॥

केवल पूना प्रति में प्राप्त होनेवाले पद
१६४
नहीं ऐसो जन्म बारुंबार ।
कहीं पूरब लै पुनि पाईयौ । मनिषा औतार ॥टेक॥
ग्रभ बास मैं प्रतिपाल कीन्हीं । ताहि सुमरि गंवार ।
कहा उतर देहगौ । राजाराम कै दरबार ॥१॥
बधत पल पल घटत छिन छिन जात न लागै बार ।
तरवर सूं फल झडि पडै । बहौरि न लागै डार ॥२॥
संसार सागर मंडी बाजी । सुरति कीन्हीं सारि ।
मनिष जन्म का हाथि पासा । जीति भावै हारि ॥३॥
संसार सागर विषम तिरणां । निपट उंडी धार ।
सुरति निरति का बांधे भेरा । उतरिये लै पार ॥४॥
काम क्रोध मद लोभ लालच । ताहि बंध्यौ संसार ।
दास नामैं जग जीति लीया । केवल नांव अधार ॥५॥

१६५
उठिरे नांमदेव बाहरि जाइ । जहां लोग महाजन बैठे आइ ॥टेक॥
बांभण बनीयां उत्तिम लोग । नहीं रे नांमदेव तेरा जोग ॥१॥
बार बार सीधा कुण लेह । को छिपीया ढिग बैसण देह ॥२॥
हम तौ पढीया बेद पुरानां । तू कहा ल्यायौ ब्रह्म गियाना ॥३॥
नामदेव मनि उपरति धरी । हीन जाति प्रभु काहे मोरी करी ॥४॥
झाडि कबलीया चल्यौ रिसाइ । मठ कै पीछै बैठो जाइ ॥५॥
पगां घूंघरा हाथां तारी । नामदेव भगति करै पछि वारी ॥६॥
धज कांपी देवल धरहरया । नांमदेव सनमुषि दूबारा फिरया ॥७॥
नामदेव नरहरि दरसन भया । बांह पकडि मिंदर मै लीया ॥८॥
जैसी मनसा तैसी दसा । नांमदेव प्रणवै बीसो बिसा ॥९॥

१६६
आ भडै रे नौआ आ भणै रे ।
होति छोति कहि नहीं छीपा सूं । देवल मांही ना बडै रे ॥टेक॥
उत्तिम लोग देहरे आया । च्यारुं वरण चा भडै रे ॥१॥
उंठिभाई नांमदेव बाहरि आव । ज्यौं पंडित वेद भणैं रे ॥२॥
नामदेव उठि जब बाहरि आयौ । केसौ नै कल न परै रे ॥३॥
देवल फिरि नामा दिसि भईया । पंडित सब पांवा पडै रे ॥४॥
दास नामदेव कौ ऐसा ठाकुर । पण राषै हरि सांकडै रे ॥५॥

१६७
गाई मन गोबिंद गाइ रे गाइ । तेरो हरि बिन जनम अकारथ जाइ ॥टेक॥
मनिषा जनम न बारंबार । तातै भजि लै रामपियार ॥१॥
रे मन गोबिंद काहे न गावै । मनिषा जनम बहुरि नहिं पावै ॥२॥
छाडि कुटिलाइ हरि भजि मनां । या जीवडा का लागू धना ॥३॥
अब कै नांमदेव भया निहाल । मिले निरंजन दीनदयाल ॥४॥

१६८
झिलिमिलि झिलिमिलि नूरा रे । जहं बाजै अनहद तूरा रे ॥टेक॥
ढोल दमामां बाजै रे । तहां सबद अनाहद माजै रे ॥१॥
फिर रायां जोति प्रकासी रे । जहां आपै आप अविनासी रे ॥२॥
जहां सूरिज कोटि प्रकासा रे । तहां निहचल नामदेव दासा रे ॥३॥

१६९
गावै तौ गाइ भावै मति गावै राम । वाहि बदै बे काम ॥टेक॥
पढै गुनै अरु कथै अनेक । बसतु भली पकडि भांडे छै ॥१॥
जब लगि नाहीं हिरदै हेत । बीज बिना क्युं निपजै षेत ॥२॥
जिभ्या इंद्री नांहीं सुद्ध । बांझ भणां क्यों निकसै दुध ॥३॥
नामदेव कहै इक बुधि विचारि । बिनि परचै मति मरौ पुकारि ॥४॥

१७०
ऐसे ही मना रे मेरे ऐसे ही मनां । चलौ रे जहां साहिब अपनां ॥टेक॥
ज्यू सापों सर ले ने जाइ । जल को डर तो विलमग जाइ ॥१॥
ज्यूं पंथी पंथ मांही डरै । घर है दूरि रैनि जानि परै ॥२॥
बाल बुधि जैसे कोडी देह । रिधनां डर तौ सांस न लेह ॥३॥
ऐसे जारिम पऊ चरण करै । नामदेव कहै ताको कारिज सरै ॥४॥

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Last Updated : January 02, 2015

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