हिन्दी पदावली - पद ७१ से ८०

संत नामदेवजी मराठी संत होते हुए भी, उन्होंने हिन्दी भाषामें सरल अभंग रचना की ।



७१
जहां तहां मिल्यौ सोई । ताथैं कहै सुनै सब कोई ॥टेक॥
अभेदै अभेद मिल्यौ । भेदै मिल्यौ भेदू ।
सहज सोई सहज मिल्यौ । षेले मिल्यौ षेलू ॥१॥
दुष सोई दुषै मिल्या । सुषै सुष समानां ।
ग्यान सोई ग्याने मिल्यौ । ध्यानै मिल्यौ ध्याना ॥२॥
देष्यौ कहूं तौ निफ्ट झूठा । सुनी कहू तो झूठारे ।
नामदेव कहै जे अगम भण । तौ पूछया ही अण पूछया रे ॥३॥

७२
बीठला भंवरा कंवल न पावै । ताथै जन्म जन्म डहकावै ॥टेक॥
दादुर ऐक बसै पडवणि तलि । स्वाद कुस्वाद न पावै ।
पहुप बास का लुबधी भौंरा । सौ जोजन फिरि आवै ॥१॥
महणारंभ होत घट भीतरि । रवि ससी नेत बिलौवै ।
वो हालै वो ठौर न पावै । ताथैं भौंरा जुगि जुगि रोवै ॥२॥
उपजी भगति पचीसूं परिहरि । बहोरि जन्म नहीं आवै ।
अषंड मंडल निराकार मैं । दास नांमदेव गावै ॥३॥

७३
रे मन पंछीया न परसि पिंजरै । संसार माया जाल रे ।
येक दिन मैं तीन फेरा । तोहि सदा झंपै काल रे ॥टेक॥
धन जोबन रुप देषि करि । गरव्यो कहा गंवार रे ।
कुंभ कांचौ नीर भरीयो । बिनसतां नहीं बार रे ॥१॥
अमी कुंदन कपूर भोजन । नित नवा सिंगार रे ।
हंस कावडि छाडि चाल्यौ । देह ह्रैहै छार रे ॥२॥
ते पिता जननी आहि ल्यछमी । पूत सब परिवार रे ।
अंति ऊभा मेल्हि करि । ऐकलो जाइ नहीं लार रे ॥३॥
बरस लगि तेरी माइ रोवै । बहनडी छह मास रे ।
अस्त्री रोवै दस देहाडा । चित वंती घर बास रे ॥४॥
भनत नांमदेव सुनूं हो तिलोचन । घटिदया ध्रम पालि रे ।
पाहुनां दिनच्यारि केरा । सुकृत राम संभारि रे ॥५॥

राग गौडी
७४
अदबुद अचंभा कथ्या न जाई । चींटी के नेत्र कैसे गजिंद्र समाई ॥टेक॥
कोई बोलै नेरे कोई बोलै दूरि । जल की मछली कैसे चढै षजूरि ॥१॥
कोई बोलै इंद्री बांध्या कोई बोलै मुक्ता । सहजि समाधि न चीन्हे मुगधा ॥२॥
कोई बोलै बेद सुमृत पुरांना । सतगुरु कथीया पद निरवानां ॥३॥
कहै नांमदेव परम तत है ऐसा। जाकै रुप न रेष वरण कहौ कैसा ॥४॥

७५
देवा आज गुडी सहज उडी । गगन मांहि समाई ।
बोलन हारा डोरि समांनां । नहीं आवै नहीं जाई ॥टेक॥
तीन रंग डोरि जाके । सेत पीत स्याही ।
छांडि गगन वाजि पवन । सुर नर मुनि चाही ॥१॥
द्वादसतैं उपजी गुडी । जानै जन कोई ।
मनसा कौ दरस परस । गुरु थैं गम होई ।२॥
कागद थैं रहित गुडी । सहज आनंद होई ।
नांमदेव जल मेघ बूंद । मिलि रह्या ज्यूं सोई ॥३॥

७६
काहे रे मन भूला फिरई । चेति न राम चरन चित धरही ॥टेक॥
नरहरि नरहरि जपिरे जीयरा । अवधि काल दिन आवै नियरा ॥१॥
पुत्र कलित्र धन चित बेसासा । छाडि मनारे झूठी आसा ॥२॥
तू जिनि जानै ग्रेही ग्रेहा । बिनसत बार कछू नहीं देहा ॥३॥
कहत नांमदेव झूठी देही । तौ सांची जे राम सनेही ॥४॥

७७
राम नांमै बोलि नृवाण वाणी । जिभ्या आंन मिथ्या करि जाणी ॥टेक॥
को को न सारे को को न उधारे । बैकुंठ नाथ षसम हमारे ॥१॥
सोना की मालि पाषाण बेधिला । झींझ फूटी रामनांम अकेला ॥२॥
सपत पुरी नौ उषर भाई । रांम बिना कौने गति पाई ॥३॥
माटी देषि माटी कहा भुलाना । कहि समझावै दास नामा ॥४॥

७८
मेरी कौन गति गुसाई तुम जगत भरन दिवा ।
जन्म हीन करम छीन भूलि गयौ सेवा ॥टेक॥
बडौ पतित पतितन मैं । गज गनिका गामी ।
और पतित जगत प्रकट । तिनहूं मैं नांमी ॥१॥
तुम दयाल मैं गरीब । टेरि कहौं रामा ।
दीन जानि बिनती मानि । गावै दास नामा ॥२॥

७९
ऐवडी सीमौंनै बुधि आवडी । नाम न बिसरुं एकौ घडी ॥टेक॥
हरि हरि कहतां जे नर लाजै । जमस्की डांग तिनै सिरि बाजै ॥१॥
हरि हरि कहतां न कीजै बांतां । गयौ पाप जे पोतै हुता ॥२॥
नामदेव कहै मैं हरि हरि मनौं । कहै पाप अरु लाभ होई घनौ ॥३॥

८०
ऐसे जगथैं दास नियारा ।
वेद पुरांन सुमृत किन देषौ पंडित करउ बिचारा ॥टेक॥
दधि बिलाइ जैसे घृत लीजे । बहुरि न ऐकठ थाई ॥
पावक दार जतन करि काढ्या, बहुरि न दार समाई ॥१॥
पारस परसि लोह जैसे कंचन, बहुरि न त्र्यंबक होई ।
आक पलास बेधीया चंदन, कास्ट कहै नहीं कोई ॥२॥
जे जन राम नाम रंगि राता, छाडि करम की आसा ।
ते जन रामै राम समानै, प्रणवत नामदेव दासा ॥३॥

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Last Updated : January 02, 2015

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